जागरूक दूरदर्शिता
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
प्रकाशवीर शास्त्री
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माननीय श्री गुरुजी तेजस्वी, दूरदर्शी तथा तपस्वी राष्ट्रनेता थे। उनका व्यक्तित्व चमत्कारी तथा कृतित्व प्रेरणादायक था। उन्होंने संघ के सरसंघचालक के रूप में पूरे 33 वर्षों तक हिन्दू समाज व राष्ट्र की जो सेवा की वह भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। भारत विभाजन के दौरान श्री गुरुजी के तेजस्वी व कुशल नेतृत्व में संघ के स्वयंसेवकों ने पंजाब, दिल्ली में जान पर खेलकर भी लाखों निरीह नर-नारियों की आततायियों से जिस प्रकार रक्षा की तथा दिल्ली व अन्य नगरों में अराष्ट्रीय तत्वों के षडयंत्र से धवस्त होने से बचाया, उससे संघ के राष्ट्र-प्रेम व साहस का ज्वलंत प्रमाण मिलता है। दिल्ली को आग में स्वाहा होने से बचाने का श्रेय श्री वसंतराव ओक तथा अन्य स्वयंसेवकों को है, यह सरदार पटेल तक ने स्वीकार किया था।
 
शास्त्री जी नतमस्तक
श्री गुरुजी से भेंट करने, उनके साथ भोजन करने तथा उनके हास्य-विनोद में शामिल होने का मुझे अनेक बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनकी विनम्रता, निरहंकारिता, स्नेह तथा तपस्वी जीवन बरबस ही दूसरे को अपना बना लेने की अपूर्व क्षमता रखते थे। उनके ऋषियों जैसे व्यक्तित्व में एक अजीब आकर्षण था तथा उनके दर्शन करते ही बरबस सिर श्रध्दा से उनके चरणों में झुक जाता था। बड़े-बड़े नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री तक को मैंने उनके समक्ष नतमस्तक होते स्वयं अपनी आंखों से देखा था।
सन् 1965 में पाकिस्तान के आक्रमण के समय प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने पहली बार भेदभाव को त्याग कर सभी राष्ट्रवादी दलों के नेताओं को राष्ट्र पर आए संकट के मुकाबले में सहयोग व सुझाव देने के लिए आमंत्रित कर एक स्वस्थ परंपरा का शुभारंभ किया। उस बैठक में श्रीगुरुजी को भी आमंत्रित किया गया तो कम्युनिस्टों तथा अन्य तत्वों ने बवेला मचाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु श्री लालबहादुर जी ने स्पष्ट रूप से यह कह कर कि सबकी राष्ट्रभक्ति असंदिग्धा है, विरोध करने वालों का मुँह बंद कर दिया था।
 
श्रीगुरुजी का उद़्बोधन
उस बैठक में मुझे श्री गुरुजी में तेजस्वी व राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत व्यक्तित्व की झलक देखने को मिली थी। श्री अन्नादुराई के प्रेरक भाषण के बाद श्री गुरुजी ने केवल चंद शब्दों में उपस्थित सभी नेताओं को स्तब्ध कर दिया था। उन्होंने कहा था: 'जब देश के विभाजन के समय अंधःकार की घटाएँ छाई हुई थीं, तब संघ ने राष्ट्र व समाज की रक्षा के रूप में दीपक जलाकर उस घोर अंधःकार में प्रकाश की किरणें फैलाने का प्रयास किया था। अनेक स्वयंसेवकों ने अपने प्राण देकर भी समाज-बंधुओं के प्राणों की रक्षा की थी। आज हम पुन: राष्ट्र पर हुए आक्रमण के प्रतिकार के लिए जी-जान से तत्पर हैं। जिस मोर्चे पर खड़ा होने को कोई उद्यत न हो, उस पर मैं और स्वयंसेवक आपको तैयार खड़े मिलेंगे।'
उनके उपर्युक्त वाक्य सुनकर उपस्थित सभी नेताओं के हृदय आशा व प्रेरणा से फूल उठे थे। मैंने देखा कि श्री लालबहादुर शास्त्री जी स्वयं उस तपस्वी नेता के अंत:करण के उन उद्गारों को सुनकर फूले न समाए थे। इसके बाद संघ के स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार युध्द में सहयोग दिया, यातायात व्यवस्था से लेकर रक्तदान तक में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, वह किसी से छिपा नहीं है।
 
चीनी आक्रमण की चेतावनी
सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया था, उसी दौरान एक दिन मुझे श्री गुरुजी से भेंट का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्री गुरुजी देश के पहले नेता थे, जिन्होंने आक्रमण से पूर्व ही चीन के आक्रमण की चेतावनी देश को दे दी थी तथा भारत को सैनिक दृष्टि से तेजी से तैयारी करने का आह्वान किया था।
 
तटस्थता की अनिवार्य शर्त
भेंट के दौरान जब मैंने उनकी दूरदर्शिता के विषय में कहा, तब उन्होंने गंभीर होकर कहा कि 'इस देश के शासक आज भी तटस्थता का राग आलापने में लगे हुए हैं। गंगा के तट पर पड़ा तिनका अपने को तटस्थ कहे तो यह उसका व्यर्थ का ही अहंकार है। जल के एक झोंके से उसका यह अहंकार छूमंतर हो जाएगा। हाँ, यदि कोई पहाड़ कहे कि मैं तटस्थ हूँ तो वह अवश्य बड़ी-बड़ी आँधियों के वेग को सहन करने की क्षमता रखता है। अत: उसका कथन ठीक है।'
कहने का अर्थ यही है कि श्री गुरुजी तटस्थता की नीति को समर्थ व शक्तिशाली होने के बाद ही सार्थक मानते थे। धर्मवीर डा. मुंजे व वीर सावरकर की तरह वे भारत के सैनिकीकरण के प्रबल समर्थक थे। वे डा. मुंजे द्वारा स्थापित स्कूल की तरह देशभर में सैन्य शिक्षा देने वाले विद्यालयों की स्थापना के आकांक्षी थे।
श्री गुरुजी देश को कम्युनिस्ट तानाशाही के खतरे से बचाने के लिए चिंतित रहते थे। वे जहाँ अमेरिका के भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण को भीषण खतरा समझते थे, वहाँ कम्युनिस्ट देशों के संकेत पर देश को खून में डुबो डालने के कम्युनिस्ट कुचक्र के खतरे से भी पूरी तरह सावधान थे।
प्रजातंत्र की सफलता के लिए वे एक स्वस्थ व सबल विरोधा पक्ष की आवश्यकता अनुभव करते थे।
 
प्रभावशाली विपक्ष की आवश्यकता
सन् 1969 में दिल्ली में लाला हंसराज गुप्त के निवास स्थान पर मुझे श्री रघुवीर सिंह शास्त्री तथा श्री शिवकुमार शास्त्री के साथ जाकर उनसे काफी देर तक विचार-विनिमय का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने देखा कि वे स्वयं इस बात के आकांक्षी थे कि भारत के प्रति पूर्ण निष्ठा रखने वाले सभी दल एक सशक्त शालीन व स्वस्थ विरोधा पक्ष के रूप में उभर कर सामने आएं; क्योंकि वे स्वयं राजनीति से अलिप्त थे, अत: इस कार्य में सक्रिय भाग ले नहीं सकते थे।
श्री गुरुजी का विनोदपूर्ण स्वभाव ही उनके स्वास्थ्य, सफलता तथा कर्मठता का रहस्य था। वे बड़ों के साथ बड़ों जैसी बातें करते, तो बच्चों में बैठकर बच्चे का स्वरूप धारण कर लेते थे।
 
प्रत्युत्पन्नमतित्व
एक बार इंदौर में आयोजित आर्यसमाज के सम्मेलन में भाग लेने गया, तब पता चला कि श्री गुरुजी, पं. रामनारायण जी शास्त्री के यहां विराजमान हैं। मैं उनके दर्शनों का मोह न छोड़ पाया तथा वहाँ जा पहुँचा। मैंने हंसी मजाक के बीच कह दिया - 'शास्त्रों में वैद्य के नमक को अच्छा नहीं कहा गया है।' वे मेरे कथन को सुनकर ठहाका लगाकर हँस पड़े तथा तपाक से बोले 'वैद्य, डाक्टरों व श्मशान की संगत से जीवन के प्रति मोह व भय कम होता है, यह भी तो शास्त्रों में कहा गया है।' मैं उनके प्रत्युत्तर के सुनकर अवाक् रह गया। वे अत्यंत कुशल हाजिरजवाब थे। श्री गुरुजी आज हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु राष्ट्र व हिन्दू समाज की रक्षा व सेवा के लिए संघ के रूप में जो वरदान वे छोड़ गए हैं, वह सदैव उनके लक्ष्य पर चलकर सफलता प्राप्त करता रहेगा, इसमें कोई संदेह नहीं। वे राष्ट्रपुरुष थे तथा राष्ट्र उनसे सदा प्रेरणा ही लेता रहेगा।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.