समष्टिमय जीवन - पं. दीनदयाल उपाध्याय
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
एक सज्जन ने, जो अपने-आपको संघ के विरोधी समझते हैं, कहा : ''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के नाते नहीं, बल्कि श्री माधवराव गोलवलकर के नाते श्री गुरुजी के व्यक्तित्व में मेरी श्रध्दा है।'' उनका कथन कोई अनूठा नहीं, क्योंकि इस प्रकार का विचार करने वाले बहुत से हैं। एक समय वह भी था (सन् १९४८ में) जब बड़ों-बड़ों ने यह कहा कि 'संघ और संघ के स्वयंसेवक तो अच्छे है, किन्तु उनके नेता और संचालक उन्हें गलत दिशा की ओर ले जा रहे हैं।' अर्थात् दोनों प्रकार के व्यक्तियों की भावनाओं में अंतर हो सकता है, किन्तु विचारों की भूमिका में नहीं। उनके अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक और श्री माधवराव गोलवलकर दो व्यक्ति हैं। मेरे अनुसार वे दोनों को ही नहीं समझ पाए, न तो संघ को और न श्री गुरुजी को।
 
महानता का रहस्य
मैं जब यह कहता हूँ कि श्री गुरुजी का व्यक्तित्व संघ के सरसंघचालक से पृथक् कुछ भी नहीं, तो मेरा यह अर्थ नहीं कि उनमें महान् विभूतिमत्व का अभाव है। संघ के सरसंघचालक बनने पर उन्होंने कहा था कि 'यह तो विक्रमादित्य का आसन है, इस पर बैठकर गडरिये का लड़का भी न्याय करेगा।' विनय के साथ उन्होंने अपनी तुलना गडरिये के लड़के से की। किन्तु कोई यह समझने की भूल नहीं कर सकता कि उनकी अप्रतिम महत्ता सिंहासन के कारण नहीं, अपितु उनके अपने विक्रम के कारण है। हाँ, उन्होंने अपनी सम्पूर्ण शक्ति और विक्रम को संघ के साथ एकरूप कर दिया और वही है उनके जीवन का लक्ष्य और उनकी महानता का रहस्य।
 
अविस्मरणीय पाठ
सन् १९३८ की बात है, संघ के आद्य सरसंघचालक परम पूजनीय डाक्टर हेडगेवार जीवित थे। उसी वर्ष श्री गुरुजी नागपुर में लगने वाले अधिकारी शिक्षण शिविर के सर्वाधिकारी थे। शिविर की समाप्ति के पूर्व उसमें भाग लेने वाले स्वयंसेवकों ने परम पूजनीय डाक्टर जी को भेंट करने के लिए निधि एकत्र की। प्रत्येक ने अपनी-अपनी श्रध्दा के अनुसार दिया। यह किसी को ज्ञात नहीं था कि किसने क्या दिया? एक स्वयंसेवक ने निधि में कुछ न देते हुए अपनी श्रध्दा के स्वरूप परम पूजनीय डाक्टर जी को घड़ी की सोने की चैन भेंट की। निधि और चैन भेंट करने का कार्यक्रम हुआ। हम लोग अपने मन में उस स्वयंसेवक की प्रशंसा कर रहे थे जिसने त्याग करके वह सोने की चैन भेंट की। हमारे सम्मुख वही उस दिन का हीरो था। सर्वाधिकारी के नाते श्रीगुरुजी समारोप भाषण के निमित्त खड़े हुए। अपने भाषण में उन्होंने सोने की चैन का उल्लेख करते हुए कहा : ''मैं मानता हूँ कि जिस स्वयंसेवक ने यह चैन भेंट की है, उसके मन में डाक्टर जी के प्रति बड़ा आदर, प्रेम एवं श्रध्दा है, किन्तु वह अभी पूरा स्वयंसेवक नहीं है, उसमें कहीं न कहीं उसका 'अहं' छिपा हुआ है। जो निधि दी गई है, उसमें किसी का व्यक्तित्व पृथक नहीं, उस निधि में साथ न देते हुए अलग से देने के मूल में अपने व्यक्तित्व की पृथकता और अहंकार है।''श्री गुरुजी के ये शब्द सुन कर हम लोगों को एकदम धक्का लगा, किन्तु संघ का स्वयंसेवक बनने के लिए अपने व्यक्तित्व को संघ जीवन में कितना विलीन करना पड़ता है, इसका ऐसा पाठ मिल गया, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
 
समष्टि का हित-विचार
अपने सम्पूर्ण जीवन को संघ के साथ एकरूप करने का कहीं आदर्श मिल सकता है तो वह परम पूजनीय श्री गुरुजी के जीवन में। किसी ध्येय तथा कार्य के साथ तादात्म्य सरल नहीं और विशेष कर उस व्यक्ति के लिए, जो उस संस्था का सर्वप्रथम नेता हो। यदि किसी अन्य व्यक्ति के सम्मुख व्यष्टि और समष्टि में संघर्ष आ जाए या दिशा का संभ्रम उपस्थित हो जाए, तो वह समष्टि की भावनाओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं के प्रतीक अपने नेता की आज्ञा को सर्वमान्य कर सकता है, उसका मार्ग सरल है। किन्तु जिस व्यक्ति के ऊपर संपूर्ण कार्य के नेतृत्व की जिम्मेदारी हो, वह अपनी अंतरात्मा को छोड़कर और किससे प्रेरणा ले सकता है? जनतंत्र की प्रचलित पध्दतियाँ वहाँ निरुपयोगी सिध्द होंगी। उनसे समष्टि की भावना और उसके हिताहित का पता नहीं चलता। सत्य न तो अनेक असत्यों अथवा अर्ध-सत्यों का औसत है और न उनका योग। फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही तो सम्पूर्ण समष्टि नहीं, वह तो समष्टि का एक बिन्दु मात्र है। उन्हें तो सम्पूर्ण समाज का विचार करना होता है।
 
पूर्ण तादात्म्य
पूजनीय गुरुजी ने समष्टि का हित ही अपने सम्मुख रखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संचालन किया है। कई बार वे लोग, जो या तो उन्हें समझ नहीं पाते अथवा समष्टि हित की अपेक्षा किसी छोटे हित को सम्मुख रख कर संघ की गतिविधि का संचालन चाहते हैं, वे श्री गुरुजी की दृढ़ता और सिध्दान्तों का आग्रह देखकर उन्हें अधिनायकवादी कह देते हैं, किन्तु वे उस मनोवृत्ति से कोसों दूर हैं। उनका अपना मत कुछ नहीं, संघ का मत ही उनका मत है और उनका मत ही संघ का मत होता है, क्योंकि उन्होंने पूर्ण तादात्म्य का अनुभव किया है।
अद्भुत विनम्रता और आत्मीयता
ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब व्यक्ति और संस्था की प्रतिष्ठा की चिंता न करते हुए उन्होंने राष्ट्र के हितों को सर्वोपरि महत्व दिया है। सन् १९४८ में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा, उस समय यदि वे चाहते तो शासन की खुली अवज्ञा करके अपनी शक्ति का परिचय दे सकते थे, किन्तु उन्होंने संघ के कार्य का विसर्जन करके अपनी देशभक्ति का परिचय दिया। प्रतिबंध उठने के पश्चात् स्थान-स्थान पर उनका भव्य स्वागत हुआ। दिल्ली में रामलीला मैदान पर जो सभा हुई, उसका आदि और अंत नहीं दिखता था। बड़े से बड़े संत के अहंकार को जगा देने के लिए वह दृश्य पर्याप्त था। जब श्री गुरुजी बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने कहा : ''यदि अपना दाँत जीभ काट ले तो मुक्का मारकर वह दाँत नहीं तोड़ा जाता।''
लोग चकित रह गए। उन्होंने आशा की थी कि गुरुजी सरकार के अत्याचारों और अन्याय की निन्दा करते हुए खूब खरी-खोटी सुनायेंगे। किन्तु उस महापुरुष की गहराई को वे नाप नहीं पाए। वहाँ तो सबके लिए आत्मीयता ही है।
 
'मैं नहीं, तू ही'
यह आत्मीयता ही उनकी महानता और उनके प्रति व्यापक श्रध्दा का कारण है और उनकी महानता इसमें है कि वे इस आत्मीयता को लेकर चल सके हैं। गत वर्ष 'धर्मयुग' साप्ताहिक ने भारत के अनेक महापुरुषों के जीवन के ध्येयवाक्य छापे थे। पूजनीय श्री गुरुजी का धयेयवाक्य सबसे छोटा किन्तु समर्पक था : 'मैं नहीं, तू ही।' इन चार शब्दों में श्री गुरुजी का संपूर्ण जीवन समाया हुआ है। यह 'तू' कौन है? संघ, समाज, ईश्वर - वे तीनों को एकरूप करके चलते हैं। तीनों की सेवा में विरोध नहीं, विसंगत नहीं। 'एकहि साधो सब सधो' के अनुसार वे संघ की साधना करके सबकी साधना में लगे हुए हैं। उनका जीवन ही साधना बन गया है।
 
स्थितप्रज्ञता
फलत: संघ के अतिरिक्त वे किसी चीज को नहीं पहचानते। उनकी ध्येयदृष्टि इतनी पैनी है कि लोगों की प्रशंसा और विरोध - दोनों में ही वे विचलित नहीं होते। संघ पर प्रतिबंध लगने के बाद जब कुप्रचार के कारण संघ को शैतान का दूसरा स्वरूप समझा जाता था, तब भी वे अपने ध्येय पर अविचल रहे और जब प्रतिबंध हटने के पश्चात् चारों ओर विशाल स्वागत समारोह हुए, वे उस हवा में नहीं बहे।
 
समाचार है कहाँ?
हम लोग समाचार-पत्र पढ़ रहे थे। आदि से अंत तक करीब-करीब सारा पत्र पढ़ डाला। इतने में पूजनीय श्री गुरुजी ने कमरे में प्रवेश किया और सहज भाव से पत्र उठाकर इधार-उधार निगाह डाली। सुर्खियां देखीं, पन्ने उल्टे और पत्र रख दिया। बातचीत शुरू हो गई। उसके दौरान संघ-संबंधी एक समाचार, जो उसी पत्र में छपा था, का जिक्र आ गया। 'परंतु वह समाचार है कहाँ?' मैंने पूछा। 'इसी अखबार में तो है' पूजनीय गुरुजी ने कहा। मैंने पूरा अखबार पढ़ा था, मुझे वह समाचार कहीं नहीं दिखा। अखबार को लेकर फिर पन्ने उल्टे, पर संघ का वहाँ कहीं नाम भी नहीं दिखा। गुरुजी ने मेरी हैरानी देखकर अखबार हाथ में लिया और बताया 'यह है वह समाचार।' बाजार भावों के पन्ने पर एक ओर वह छोटा-सा समाचार छपा था।
 
'कहाँ छाप दिया है? हम लोग क्या व्यापारी हैं, जो इस पन्ने पर निगाह जाती?' मैंने मन ही मन सोचा। दूसरे ही क्षण विचार आया 'पूजनीय गुरुजी भी तो व्यापारी नहीं, वे तो कोसों दूर हैं, मोल-तोल और भाव-ताव से। उनकी निगाह कैसे गई? और फिर अखबार भी मेरी तरह पूरा नहीं पढ़ा था, सुर्खियां ही इतनी थीं कि जितनी देर वह पत्र उनके हाथ में रहा, पूरी नहीं पढ़ी जा सकती थीं।'
 
हम देखते हैं, वे पढ़ते हैं
मैंने अपनी शंका रखी भी नहीं, पर शायद वे समझ गए। उन्होंने इतना ही कहा : 'भीड़ में भी माँ को अपना बच्चा दिख जाता है, कोलाहल में भी आत्मीयजनों के शब्द साफ समझ में आते हैं।' मेरी समझ में आ गया। उनकी वही आत्मीयता है, जिसके कारण वे उस समाचार को देख सके। अन्य देशों के ऐसे कितने ही समाचार उनकी निगाह में आ जाते हैं जबकि हम लोग नेताओं के वक्तव्य पढ़ते-पढ़ते ही समाचार-पत्रों को पी जाने की कोशिश तो करते हैं, किन्तु अनेक महत्वपूर्ण समाचारों को छोड़ जाते हैं। वे अक्सर कहते : 'मैं तो समाचार-पत्र नहीं पढ़ता। पर मैं कहूँगा कि वे (श्री गुरुजी) ही समाचार-पत्र पढ़ते हैं, हम लोग तो उन्हें देखते हैं और बहुत देर तक देखते रहते हैं।
 
एकात्मता से उत्पन्न अचूक दृष्टि
एक बार उन्हें एक पुस्तक, जो हाल ही छप कर आई थी, दिखाई। पुस्तक उन्होंने हाथ में ली। इधर-उधर देखा और सहज ही एक जगह से खोला। एक वाक्य पढ़ते हुए पूछा : 'यह क्या लिखा है?' वहाँ गलती थी। मैंने उसे स्वीकार किया। उन्होंने फिर दूसरा पृष्ठ खोला और वहाँ भी ऐसी ही एक अशुध्दि निकल आई। पुस्तक मैंने ले ली। बाद में फिर से उसे आदि से अंत तक देखा। वही दो अशुध्दियाँ थीं। पूजनीय गुरुजी की निगाह बिना किसी प्रयास के उन अशुध्दियों पर ही कैसे गई? उन्हें कोई सिध्दि प्राप्त नहीं थी और न यह कोई तुक्का था, जो लग गया। ऐसे और भी अनुभव आए हैं।
 
कहना न होगा कि यह कार्य की लगन और एकात्मता है जिसने उन्हें अचूक दृष्टि दी है। उसी दृष्टि के कारण वे प्रत्येक परिस्थिति में सत्य का दर्शन कर लेते तथा भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, इसका भी आभास पा जाते हैं। आगे की बात कहने के कारण यदि गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया जाए, तो उनकी बातें बड़ी अटपटी-सी लगती हैं, किन्तु थोड़े ही दिनों में उनकी सत्यता प्रमाणित हो जाती है।
 
सन् १९४७ में उन्होंने भावात्मक राष्ट्रीयता पर बल दिया, एकात्मता की बात कही, राष्ट्रीय चारित्र्य की आवश्यकता बताई, राजनीति की मर्यादाओं का उल्लेख करते हुए सांस्कृतिक अधिष्ठान पर समाज के संगठन का संदेश दिया। पिछले आठ वर्षों ने उनके प्रत्येक कथन को सत्य सिध्द किया है तथा प्रत्येक नई घटना उसे अधिकाधिक पुष्ट करती जा रही है। मैं तो नि:संकोच भाव से कहता हूँ कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के बहुत से अगुआ होंगे, किन्तु जिसने संपूर्ण जीवन का पूर्णता के साथ आकलन किया और जो बिना किसी मोह या भय के एवं साहस के साथ उस सत्य का उच्चार कर सकता है, ऐसा एक व्यक्ति है और वह हैं : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री माधवराव गोलवलकर।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.