मूलगामी दृष्टि - नानाजी देशमुख
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
नानाजी देशमुख
(ग्राम विकास के पुरोधा)
विभिन्न विवादा- स्पद विषयों पर भी गुरुजी सहज भाव से समाधान बता दिया करते थे। जब कभी कोई मार्ग नहीं सूझता था, गुरुजी का मार्गदर्शन काम आता था।
बात उस समय की है, जब पंजाब में भाषा विवाद खड़ा हुआ था। संयोग से दीनदयाल जी की और मेरी नागपुर में गुरुजी से भेंट हुई। कई स्थानीय कार्यकर्ता भी थे। गुरुजी बोले - 'अरे भाई क्या चल रहा है पंजाब में? तुम्हारे नेता लोग क्या कह रहे हैं पंजाबी भाषा के बारे में?'
 
स्पष्ट विचार
हममे से काई कुछ नहीं बोला। कुछ देर बाद गुरुजी स्वयं बोले - 'क्या राजनीति में काम करने वालों का दृष्टिकोण सीमित (दलगत) हो जाता है? वह (दृष्टिकोण) व्यापक नहीं रह पाता? हिन्दी राष्ट्रभाषा है, स्वाभाविक रूप से उसके प्रति मोह, उसके विकास के लिए प्रयत्न होना चाहिए। लेकिन पंजाबी भाषा क्या विदेशी भाषा है? क्या वह सांप्रदायिक भाषा है? पंजाबी भाषा एक क्षेत्रीय भाषा है और हमारी अपनी भाषा है। उसका अभिमान होना चाहिए न कि उसका उपहास। यह सिर्फ केशधारियों की भाषा नहीं है। यह कहना भी गलत है कि यह सिर्फ नानकपंथियों की भाषा है। 'गुरुग्रंथ साहब' आदि धार्मिक ग्रंथों में क्या केवल पंजाबी भाषा है? अनेक भाषाएँ मिलती हैं। उन्हें किसी भाषा से नफरत नहीं थी। किसी और को भी उनकी भाषा से नफरत नहीं होनी चाहिए।' कितना स्पष्ट विचार था!'
 
श्रीगुरुजी द्वारा किया जाने वाला समस्या का विश्लेषण और निदान सत्य की कसौटी पर भी खरा उतरता था। आंध्र विवाद जब शुरू हुआ तो हमारे लोगों ने वहाँ एक अध्ययन दल भेजा। गुरुजी उन दिनों इंदौर में विश्राम कर रहे थे। मैं भी संयोग से इंदौर में था। उनसे भेंट हुई तब वे बोले - 'तुम्हारा अध्ययन दल वहाँ क्या कर रह है? आंध्र और तेलंगाना के अलग होने से कोई कठिनाई नहीं आयेगी? इससे राष्ट्रीय एकता खंडित नहीं होगी? लोगों को सुविधा हो, आर्थिक विकास में पोषण हो और प्रशासनिक दृष्टि से सुविधाजनक हो तो आवश्यकतानुसार प्रान्तों की पुनर्रचना राष्ट्रीय एकात्मता के लिए भी आवश्यक रहती है। इसमें अध्ययन करने का क्या प्रश्न है? यह तो स्वयं स्पष्ट हैं। आंध्र-तेलंगाना के प्रश्न को विवादास्पद बनाकर लोगों में असंतोष व हिंसक वृत्ति को बल मिले, ऐसी हठवादिता का क्या अर्थ है?
 
गुरुजी के सान्निध्य में जो भी आता था, गुरुजी के व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था।
 
डा. सम्पूर्णानन्द का आकलन
बात शायद सन् 1946 या 1947 की है। काशी के डी.ए.वी. कालेज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शिक्षण शिविर लगा था। स्व. डा. सम्पूर्णानंद जी से मेरे बहुत पहले से संबंध थे। वे इस शिविर के समापन समारोह में पधारे थे। गुरुजी भी थे। उस समय उनसे (डा. संपूर्णानंद से) बातचीत नहीं हो सकी, पर बाद में उनसे मिलने का संयोग हुआ तो वे बोले - 'हम तुम्हारे संघ को देख आए हैं।'
मैंने कहा - 'मैं भी वहाँ था।'
 
वे बोले - 'हाँ, तुम उस दिन मिलिट्री कमाण्डर जैसे लग रहे थे।'
 
मैंने पूछा - 'क्या आपको हमारे कमांडर बनने में कुछ एतराज है?'
 
उन्होंने जवाब दिया - 'नहीं भाई, ऐसी कोई बात नहीं है। मैं तो कह रहा था कि तुम्हारे यहाँ बड़ा गजब का अनुशासन है। इस संगठन के पीछे जो तुम्हारे गुरुजी हैं, उनका बड़ा विशिष्ट व्यक्तित्व है, बहुत ही गतिशील और प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व है। मतभेद की बात दिखने के बाद भी उनसे विवाद करने की इच्छा नहीं होती। उनसे मिलकर एक आश्चर्य की बात अनुभव हुई कि विवादास्पद विषय का पूर्ण अनुमान कर गुरुजी ऐसा मत प्रकट करते थे कि सामने बैठे व्यक्तियों को एक नये ढंग से सोचने के लिए प्रेरणा मिल जाती है।'
मैंने पूछा - 'बाबूजी, आपने यह सब कहा तो सही, पर बात क्या हुई?'
 
वे बोले - 'खैर छोड़ो, तुम्हारे गुरुजी के बारे में मेरी ऐसी धारणा बन गई है। सही या गलत मैं नहीं जानता, यह तुम जानो।'
 
श्री श्रीप्रकाश के विचार
गुरुजी के सान्निध्य में ही नहीं उनके विचारों और भाषणों से भी अनेक विद्वान और नेता अभिभूत हुए हैं। श्री श्रीप्रकाश जी का संस्मरण समीचीन रहेगा।
 
महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से निवृत्त होकर श्रीप्रकाश जी देहरादून में एक कुटिया बनाकर रह रहे थे। उन्होंने मुझे मिलने के लिए बुलाया। बाद में पता चला कि डा. सम्पूर्णानंद ने उन्हें लिखा था कि तुम नाना जी को मिलो। गुरुजी की 'बंच ऑफ थॉट्स' पुस्तक को अवश्य पढ़ो। डा. सम्पूर्णानंद जी ने ही मेरा परिचय श्रीप्रकाश जी से कराया था। उनकी इच्छा देख मैंने 'बंच ऑफ थॉट्स' उन्हें भी भेज दी।
 
जब मेरा श्री श्रीप्रकाश से साक्षात्कार हुआ तो वे बोले: 'मैं गुरुजी के व्यक्तित्व से प्रभावित अवश्य था, किन्तु उनका व्यक्तित्व इतना सर्वव्यापी है, इसकी मुझे कल्पना नहीं थी। हो सकता है, कुछ मामलों में मतभेद हो, पर उनका चिंतन बड़ा मौलिक और जड़ को छूने वाला है। इसका आप लोग व्यापक प्रचार क्यों नहीं करते? कई चीजें तो ऐसी हैं, जिनको व्यवहार में लाया जाये तो हिन्दुस्थान की सब समस्याएँ हल हो जाएँगी। मैं नहीं समझता था कि तुम्हारे गुरुजी धर्म परिवर्तन किए बिना मुसलमान और ईसाइयों को राष्ट्रजीवन का अंग मानने के लिए तैयार हो सकते हैं। गुरुजी के सारे विचार देखकर लगता है कि यदि मुसलमानों ने थोड़ा-सा भी दृष्टिकोण में परिवर्तन किया और हिन्दुस्थान की गौरवमयी राष्ट्रीय परम्परा का अभिमान रखा, तो तुम्हारे गुरुजी को उन्हें राष्ट्रीय एकात्मता के अंग मानने में कोई एतराज नहीं होगा। यह एक बहुत बड़ी बात मैं गुरुजी की समझ पाया हूँ। गुरुजी के उस विचार से मतभेद नहीं रखा जा सकता। मेरे मन में उनके प्रति आदर बढ़ गया है।'
 
दीनदयाल जी के प्रति स्नेह-विश्वास
दीनदयाल जी के प्रति गुरुजी के मन में बड़ा स्थान था, बड़ा स्नेह और अटूट विश्वास।
 
बात उस समय की है जब कालीकट के अधिवेशन के पूर्व दीनदयाल जी जनसंघ के अधयक्ष निर्वाचित हुए। कालीकट के अधिवेशन के बाद हम लोग कार से बंगलौर होते हुए डोंडबल्लापुर पहुँचे। वहाँ संघ कार्यकर्ताओं का एक वर्ग लग रहा था। गुरुजी संघ कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन दे रहे थे।
 
कार में दीनदयाल जी, सुन्दरसिंह जी भण्डारी, जगन्नाथराव जी जोशी भी थे। हम लोगों को देखते ही गुरुजी बोले - 'तुम सब नेता लोग यहाँ कहाँ आ गए?'
 
भोजन, विश्राम के बाद गुरुजी के साथ चाय के लिए बैठे। गुरुजी का बौध्दिक होने वाला था। चाय के समय गुरुजी बोले - 'आज दीनदयाल बोलेगा।' हम सब आश्चर्यचकित रह गए। किसी ने कहा कि वर्ग में सभी लोग आपसे मार्गदर्शन पाने के लिए एकत्रित हुए हैं। सभी कार्यक्रम आप ही को लेने हैं।
 
गुरुजी बोले - 'नहीं भाई, दीनदयाल ही बोलेगा।' फिर किसी ने कहा, 'गुरुजी वे तो जनसंघ के अध्यक्ष हैं।' गुरुजी ने तत्काल उत्तर दिया - 'नहीं, दीनदयाल स्वयंसेवक है। स्वयंसेवक के नाते बोलेगा, जनसंघ अध्यक्ष के रूप में नहीं।' और वस्तुत: दीनदयाल जी का जब बौध्दिक हुआ, तो गुरुजी ने भी बहुत सराहा।
 
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.