द्वितीय पत्र
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
॥ श्री ॥
अपना कार्य राष्ट्र-पूजक है, ध्येय-पूजक है, व्यक्ति-पूजा को उसमें स्थान नहीं है। मेरा शरीर अल्पकाल का साथी रहा है ऐसा डाक्टर बंधुओं का मंतव्य प्रतीत होता है। शरीर नश्वर तो है ही, कभी न कभी जायेगा। उसके जाने शेष शव का शृंगार आदि बातें विचित्र लगती हैं। वैसे ही संघ का ध्येय और उस ध्येय का दर्शन करानेवाले संघनिर्माता इनके अतिरिक्त और किसी व्यक्ति का व्यक्ति इस नाते से महत्व बढ़ाना, उसके स्मारक बनाना आवश्यक नहीं है।
मैंने तो ब्रह्मकपाल में अपना स्वत: का भी श्राध्द कर रखा है, जिससे बाद में किसी पर श्राध्दादि का बोझ न रहे।
ये अति थोडे में कहा है। इसका विस्तार से अर्थ सब समझ सकेंगे यह मेरा पूरा विश्वास है। इति।