श्री गुरुजी का संगठन कौशल्य
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
इसमें सन्देह नहीं कि आधुनिक कालखण्ड में संगठन-शास्त्र को व्यावहारिक रूप प्रदान करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक परम पूज्य डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार और उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी परम पूज्य श्री गुरुजी के समकक्ष इस विश्व में अन्य कोई व्यक्ति ढूँढ़ पाना नितान्त असम्भव है। इसका कारण यह है कि संगठन-कार्य में संलग्न व्यक्ति को सतत जागरूक रह कर अपने उन सहयोगियों की प्रत्येक गतिविधि का अति सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए उन्हें बड़े ही सहृदय, स्नेहपूर्ण एवं सरल भाव से संस्कारित करने हेतु निरन्तर प्रयासरत रहना पड़ता है।
 
श्री गुरुजी की इस अद्वितीय संगठन-कुशलता का वर्णन करते हुए संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री कुप्प.सी. सुदर्शन जी ने एक संस्मरण में लिखा है कि मार्च, 1964 में जब वे अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में भाग लेने हेतु नागपुर गए तब उनके पास महाकोशल प्रान्त के अन्तर्गत विन्ध्य विभाग से संबंधित संघ-कार्य का दायित्व था। एक दिन दोपहर की चाय के समय श्री गुरुजी ने उनसे पूछा कि यदि उसमें आस-पास के कुछ जिले बनाकर उन्हें उस प्रान्त का प्रान्त-प्रचारक बना दिया जाए तो उनका दिमाग कितना चढ़ जाएगा?
 
श्री सुदर्शन जी ने अपने उस संस्मरण में आगे लिखा है कि दो मास बाद जब उन्हें मध्य भारत का प्रान्त प्रचारक का दायित्व सौंपा गया तब उन्हें श्री गुरुजी द्वारा कहे गए उक्त शब्द स्मरण हो आए तथा वे शब्द ही उनका मार्गदर्शन करते चले आए।
 
इसी भाँति संगठन-शास्त्र के अन्य महत्वपूर्ण गुण के रूप में श्री गुरुजी छोटे से छोटे स्वयंसेवक की चिन्ता सदैव करते रहते थे। उदाहरणार्थ दादा साहब देशकर नामक एक कार्यकर्ता के जांघ पर फोड़ा होने और उसके कारण असह्य पीड़ा की जानकारी होते ही श्री गुरुजी ने परम श्रध्देया माता ताई जी (श्री गुरुजी की माताजी) से तुरन्त एक लेप तैयार कर उसे अपने हाथों से उस स्वयंसेवक के लगाने की घटना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसी भाँति जब उक्त कार्यकर्ता को संघ-प्रचारक के रूप में आन्ध्र प्रदेश भेजा जाने लगा और उसने तेलगु भाषा से स्वयं के पूर्णतया अनभिज्ञ होने तथा अंग्रेजी भाषा में दक्षता न होने की चर्चा की तब श्री गुरुजी ने उसे संगठन-शास्त्र के तीन सूत्र बताने के पूर्व पहले यह स्पष्ट किया कि संगठन-कार्य में सफलता के लिए भाषा-ज्ञान की अपेक्षा तत्परता आवश्यक है। तदुपरान्त तीन सूत्रों की चर्चा करते हुए श्री गुरुजी ने कहा कि प्रथमत: सौंपे गये कार्यक्षेत्र के प्रत्येक स्तर और वर्ग के समस्त लोगों के प्रति परम आत्मीयता का भाव हृदय में होना चाहिए। दूसरे, कार्यकर्ता के खान-पान, रहन-सहन में स्वाभाविकता होना अपरिहार्य है। तीसरे, सौंपे गए दायित्व को हर परिस्थिति में पूर्ण करने का आत्मविश्वास भी कार्यकर्ता के मन में होना अनिवार्य है। इन तीन गुणों के होते हुए असफलता कभी पास नहीं फटकने पाती।
 
इसी भाँति एक-एक स्वयंसेवक की अहर्निश चिन्ता श्री गुरुजी को रहा करती थी। एक बार श्री गुरुजी मध्य भारत के प्रवास पर थे। वहाँ एक बैठक में सभी स्थानों के संघचालक और प्रमुख कार्यकर्ता तो उपस्थित थे, किन्तु प्रह्लाद काकानी नामक कार्यकर्ता वहाँ पर नहीं था। अत: श्री गुरुजी ने तुरन्त पूछ-ताछ शुरू की कि 'इस बैठक में अपना प्रह्लाद काकानी नहीं दिखाई पड़ रहा है।' इस पर उन्हें बताया गया कि काकानी आंध्र प्रदेश में एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए गए हुए हैं।
 
ऐसी ही एक घटना महाराष्ट्र के नासिक नामक स्थान के निकट कोपरगांव के एक बाल स्वयंसेवक से संबंधित है। भीषण गर्मी में दोपहर के समय 30-40 स्वयंसेवक पैदल ही एक कार्यकर्ता के सुपुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार में भाग लेने जा रहे थे। उन स्वयंसेवकों में एक बाल स्वयंसेवक ऐसा भी था जिसके पैरों में चप्पल तक नहीं थी और उस तपती दोपहर में वह सड़क पर नंगे पैर ही पैदल चल रहा था। श्री गुरुजी का ध्यान उधार जाते ही उन्होंने कोपरगांव के कार्यकर्ता से पूछा कि 'उसके पैर में चप्पल तक नहीं है, यह तुम्हारे ध्यान में है क्या?'
 
कहने का तात्पर्य यह कि श्री गुरुजी सामान्य स्वयंसेवक तक की सदैव हित-चिन्ता किया करते थे और साथ-साथ उनका उचित रीति से मार्गदर्शन तक करते जाते थे।
 
लखनऊ के एक स्वयंसेवक गौरीनाथ का विवाह आषाढ़ कृष्ण 6 संवत् 2021 तदनुसार 1 जुलाई, 1964 को सम्पन्न होना सुनिश्चित हुआ था। उक्त मांगलिक प्रसंग पर स्वयं उपस्थित होकर अपने आशीर्वचन देने हेतु उसके पिताजी ने श्री गुरुजी को यथासमय पत्र लिखा। मई-जून के मास संघ शिक्षा वर्गों के लिए निर्धारित होते हैं। अत: श्री गुरुजी ने विवाह से पूरे एक सप्ताह पूर्व बुधवार, ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा, संवत् 2021 तदनुसार 24 जून, 1964 को उक्त स्वयंसेवक के पिताजी को पत्र लिखकर अपना आशीर्वाद प्रेषित करने के साथ ही उन्हें यह भी लिखा कि देशभर में आयोजित संघ शिक्षा वर्गों के इस प्रवास के सन्दर्भ में वे 13, 14, 15 जून, 1964 को कानपुर के संघ शिक्षा वर्ग में थे। ''विश्वास है कि मित्रवर श्री गौरीनाथ को इसका पता होगा।''
 
उक्त कालखण्ड में उक्त स्वयंसेवक लखनऊ से प्रकाशित हो रहे सुप्रसिध्द राष्ट्रवादी साप्ताहिक पत्र 'पांचजन्य' के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत था। श्री गुरुजी के प्रवास के मध्य प्रधान सम्पादक श्री यादवराव देशमुख के संघ शिक्षा वर्ग, कानपुर में जाने के कारण वह कानपुर नहीं जा सका था क्योंकि वह उक्त सप्ताह के अंक में प्रकाशित होने वाली सामग्री के चयन आदि में व्यस्त था। किन्तु श्री गुरुजी के इस एक वाक्य कि 'विश्वास है कि...... गौरीनाथ को इसका पता होगा' यह अवश्य परिलक्षित होता है कि श्री गुरुजी एक-एक स्वयंसेवक की कितनी चिन्ता स्वयं किया करते थे।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.