श्री गुरुजी और भारतीय राजनीति
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
जे.आर. पावगी
श्री गुरुजी युगपुरुष थे। त्याग, तपस्या, योग, वक्तृत्व और संगठन-क्षमता का वे अद्भुत समुच्चय थे। स्वर्गीय डाक्टर केशवराव बलिराम जी ने जब उन्हें सरसंघचालक का गुरुतर दायित्व सौंपा तब वे एक शिक्षाविद् और कर्मयोगी नवयुवक थे। वे हमेशा कहा करते थे कि वे जो कुछ करते और बोलते हैं, वह सब डाक्टर जी की प्रेरणा और मार्गदर्शन का ही परिणाम है। उनके कार्यकाल में संघ का विस्तार अत्यन्त व्यापक रूप से हुआ और लाखों नवयुवक संघ से जुड़े। यह सब श्री गुरुजी के कुशल मार्गदर्शन और संघ के पुराने व नये त्यागी और संन्यस्त जीवन व्यतीत करने वाले प्रचारकों के प्रयास से ही सम्भव हो सका। श्री गुरुजी सभी के प्रेरणा-स्रोत थे।
 
श्रेष्ठ मार्गदर्शन
यद्यपि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ऐसा संगठन है जिसका ध्येय हिन्दुओं को संगठित, अनुशासित और देश प्रेम की भावना से परिपूर्ण करना है, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसकी मूलभूत विचारधारा में समाहित है। दलगत राजनीति से संघ ने सदैव स्वयं को दूर रखा। इसका अर्थ यह नहीं कि देश की सामयिक परिस्थिति और राजनीति से उसने अपने को अछूता रखा। देशवासियों का हित-अहित बहुत कुछ राजनीतिक परिस्थितियों पर भी निर्भर है। श्री गुरुजी की दृष्टि चतुर्मुखी थी और तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रम पर उनकी पैनी नजर रहती थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग की गतिविधियों और कार्यों पर उनकी बराबर दृष्टि थी। उन्हें इस बात पर घोर आश्चर्य हुआ कि अपनी लाश पर पाकिस्तान बनने की घोषणा करने वाले गांधीजी ने भारत माता का अंग-भंग कैसे स्वीकार कर लिया? इस गम्भीर ऐतिहासिक भूल का परिणाम करोड़ों निर्दोष हिन्दुओं को भोगना पड़ा जो बड़ी संख्या में हताहत होकर और रो-पिटकर अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में खण्डित देश में आये। ऐसे संकटकाल में श्री गुरुजी के मार्गदर्शन में संघ के तत्कालीन पंजाब व सिंध के प्रचारकों और स्वयंसेवकों ने अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए बहुत सी हिन्दू महिलाओं और पुरुषों की प्राण-रक्षा की और भारत लाने में सहायता की। इस कठिन कार्य में अनेक संघ कार्यकर्ताओं ने अपना जीवन बलिदान किया।
 
जम्मू-कश्मीर विलय
यद्यपि देशी रियासतों के भारत में विलय से संबंधित कार्य का प्रभाव सरदार बल्लभभाई पटेल पर था, परन्तु जम्मू कश्मीर प्रकरण को जवाहरलाल नेहरू ने अपने नियंत्रण में रखा। इसके परिणाम को भारतवासी आज तक झेल रहे हैं। कश्मीर प्रकरण पर श्री गुरुजी पहले से ही सजग थे और 1947 तक सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर में संघ कार्य का विस्तार हो चुका था। सर्वश्री बलराज मधोक, जगदीश अब्रोल, हरि भनोट जैसे संघ के कार्यकर्ता शेख अब्दुल्ला और रामचंद्र काक की नीयत को पहचान चुके थे। परन्तु जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह जम्मू-कश्मीर को भारत में विलीन करने के प्रश्न पर हिचकिचा रहे थे। सरदार पटेल और मेहरचंद महाजन को इस सारी परिस्थिति की जानकारी थी।
 
जम्मू-कश्मीर में आसन्न संकट का अनुमान लगाकर सरदार पटेल ने मेहरचन्द महाजन को श्री गुरुजी से सम्पर्क करने को कहा। परिणामत: इस परिस्थिति में फँसे जम्मू-कश्मीर को उबारने के लिए श्री गुरुजी 17 अक्टूबर, 1947 को श्रीनगर गए और अगले दिन राजा हरिसिंह से भेंट कर उन्हें भारत में तत्काल विलय की आवश्यकता और महत्व का ज्ञान कराया जिसके परिणामस्वरूप हरिसिंह राज्य को भारत में विलय के लिए तैयार हो गए। इस भेंट के एक सप्ताह के अन्दर ही पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में कबाइलियों के माध्यम से बर्बर आक्रमण कर दिया। 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरिसिंह द्वारा जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में करते ही भारतीय सेना ने जवाबी कार्यवाही प्रारम्भ की। परन्तु इस बीच जम्मू-कश्मीर का एक तिहाई भाग पाकिस्तान हड़प चुका था और हमारे अदूरदर्शी राजनेताओं के कारण वह आज तक पाकिस्तान के अधिकार में है।
 
भारतीय जनसंघ की स्थापना
समस्त जागतिक और देश की परिस्थितियाँ ऐसी बन रही थीं कि संघ के लिए देश की राजनीतिक परिस्थितियों से अपने को अछूता रखना असंभव हो गया। श्री गुरुजी का मत था कि यथासंभव विलम्ब से हमें इसमें उतरना चाहिए। परन्तु उन्होंने इसे वर्ज्य नहीं माना। पूर्वी बंगाल, पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश में हिन्दुओं पर सतत अत्याचार हो रहे थे और 1950 में उसमें और वृध्दि हो गयी। नेहरू जी की दृष्टि में पाकिस्तान एक परकीय देश था और इस कारण वहाँ के निवासी हिन्दू भी परकीय थे। इस दृष्टि से भारत की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है, ऐसा वे मानते थे।
 
इस सारे घटनाक्रम से डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी मर्माहत हुए और वे मानते थे कि नेहरू जी ने पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं के साथ विश्वासघात किया है। इसका विरोध करते हुए उन्होंने 8 अप्रैल 1950 को मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी यद्यपि कांग्रेस सरकार में मंत्री थे परन्तु उनकी पृष्ठभूमि हिन्दुत्ववादी थी और वे पहले हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रह चुके थे। अतिशय तीव्रता से वे अनुभव करते थे कि हिन्दुओं का हित देखने वाला कोई राजनीतिक दल होना चाहिए। संघ के कुछ कार्यकर्ता भी इसे चाहते थे। श्री वसंतराव ओक और कश्मीर में संघ के प्रचारक बलराज मधोक डा. मुखर्जी से नया राजनीतिक दल बनाने का सतत आग्रह कर रहे थे। कुछ संघ प्रचारक राजनीति से विरत रहने के पक्षधार भी थे। यह सब विचार मंथन चल ही रहा था कि इसी बीच 15 दिसम्बर, 1950 को सरदार पटेल का देहावसान हो गया। हिन्दुओं का हित देखने के संबंध में पटेल काफी अनुकूल समझे जाते थे। यद्यपि उनके गृहमंत्री रहते ही गांधीजी हत्या के बाद संघ पर अकारण प्रतिबंध लगा दिया गया था और हजारों कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया था। श्री गुरुजी भी निरुध्द थे। इस संकट से संघ को बचाने के लिए 9 दिसम्बर 1948 से संघ को एक देशव्यापी सत्याग्रह आंदोलन चलाना पड़ा जिसमें 60 हजार से भी अधिक स्वयंसेवक जेलों में गए। अंतत: सरकार को प्रतिबंध वापस लेना पड़ा। यह एक अलग प्रकरण है और इसलिए यहाँ विस्तार से चर्चा करना प्रासंगिक नहीं है। समस्त परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए एक नये राजनीतिक दल के गठन के निष्कर्ष पर श्रीगुरुजी भी पहुँचे।
 
प्रत्यक्ष राजनीति से अलिप्त
संघ प्रत्यक्ष राजनीति से पूर्णत: अलिप्त रहेगा और हिन्दू राष्ट्र भाव इस नये राजनीतिक दल को स्वीकार्य करना होगा, ऐसी दो अपेक्षाएँ गुरुजी ने श्यामाप्रसाद जी से रखीं, जिसे उन्होंने सहर्ष मान्य कर लिया। फलस्वरूप श्री गुरुजी ने श्यामाप्रसाद जी को राजनीतिक दल खड़ा करने में अपना आशीर्वाद प्रदान किया। 1948 में संघ प्रतिबंध का दंश झेल चुका था और इस कारण श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सहमति प्रदान करने में श्री गुरुजी को कठिनाई नहीं हुई। परिणामत: मई 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई और 1952 में सामान्य निर्वाचन में जनसंघ ने एक नये राजनीतिक दल के रूप में भाग लिया। यद्यपि इस चुनाव में जनसंघ को कोई विशेष सफलता नहीं मिली पर राजनीति के क्षेत्र में उसकी दस्तक महत्वपूर्ण सिध्द हुई।
 
सहयोग
जनसंघ को खड़ा करने में राजनीति में रुचि रखने वाले संघ के कुछ उच्च कोटि के प्रचारक उस क्षेत्र में गए जिनमें कुछ प्रमुख महानुभाव सर्वश्री नानाजी देशमुख, बलराज मधोक, भाई महावीर, सुंदरसिंह भण्डारी, जगन्नाथराव जोशी, लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे, रामभाऊ गोडबोले, गोपाल- राव ठाकुर आदि प्रमुख नाम हैं। श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी संघ के प्रचारक थे परन्तु वे कुछ समय पश्चात् वहाँ गए। उन्होंने श्यामाप्रसाद मुखर्जी के निजी सचिव के रूप में कार्य किया। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण नाम है पण्डित दीनदयाल उपाधयाय का। जनसंघ को खड़ा करने में संगठनात्मक जिम्मेदारी दीनदयाल जी की ओर आयी। दीनदयाल जी अत्यन्त प्रतिभाशाली सौम्य स्वभाव के और अद्भुत संगठनात्मक क्षमता के धानी थे। उन्हीं के प्रयास से भारतीय जनसंघ देश में एक मजबूत राजनीतिक दल के रूप में खड़ा हुआ। उन्होंने यह दायित्व अगले 17 वर्ष निभाया। दीनदयाल जी ने भारतीय जनसंघ को एक नयी विचारधारा और राष्ट्रवादी तेवर दिए।
 
डा. मुखर्जी का बलिदान
इस बीच भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने शेख अब्दुल्ला सरकार द्वारा बनाई गयी परमिट नीति को समाप्त करने का बीड़ा उठाया। यह प्रणाली जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करती थी। इसके विरोध में डा. मुखर्जी कश्मीर गए और शेख अब्दुल्ला ने उन्हें बंदी बनाया।
 
23 जून, 1953 को कारावास में ही उनका रहस्यमय परिस्थितियों में निधन हो गया। स्पष्ट रूप से यह चिकित्सीय हत्या का मामला था। इस आघात से जनसंघ को उभरने में काफी समय लगा। श्री गुरुजी डा. मुखर्जी के कश्मीर में जाने से पहले से ही आशंकित थे परन्तु दुर्भाग्य से डा. मुखर्जी बिना श्रीगुरुजी से परामर्श लिए कश्मीर चले गए। परिणामस्वरूप उन्हें अपने प्राण न्यौछावर करने पड़े।
 
भारतीय जनसंघ को दूसरा आघात 11 फरवरी 1968 को तब लगा जब अपने कृतित्व के शिखर को छू रहे दीनदयाल जी मुगलसराय के निकट रेल की पटरी पर मृतावस्था में पड़े मिले। उनकी इस प्रकार की मृत्यु के रहस्य का उद़्घाटन नहीं हो पाया। एक निर्मल ध्येयवादी जीवन के अचानक तिरोहित होने से जनसंघ अन्त तक सँभल नहीं पाया।
 
एकात्मक शासन की आवश्यकता
श्री गुरुजी भारत के संबंध में समग्र रूप से विचार करते थे। अत: उन्हें भारत को एक संघीय इकाई घोषित करने की नीति अनिष्टकर प्रतीत होती थी। परन्तु दुर्भाग्यवश स्वाधीन देश के नीति-निर्माताओं तथा संविधान निर्मात्री सभा ने साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता के दुष्प्रचार में आकर भारत को आसेतु-हिमाचल एक अखण्ड इकाई न मानकर उसे विभिन्न राष्ट्रीयताओं का एक गठजोड़ मान लिया। सन् 1956 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग का प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ, तब सम्पूर्ण देश में बहुत जबर्दस्त आक्रोश फूट पड़ा और भाषायी विभेदों ने अत्यन्त गंभीर रूप धारण कर राष्ट्र की एकात्मता पर संघातक प्रहार कर दिया।
 
इस दु:स्थिति पर टिप्पणी करते हुए श्री गुरुजी ने कहा था कि ''अंग्रेज शासक अत्यन्त दृढ़तापूर्वक संसार को यह बताता रहा है कि याद रखो, भारत एक इकाई नहीं है वरन् आधुनिक यूरोप के समान एक महाद्वीप है। एक बहुत विस्तृत भूखण्ड, जिसमें अनेक देश, अनेक जन समुदाय, अनेक राष्ट्रीयताएँ हैं। जिनकी वंश, संस्कृति एवं भाषा की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ एवं स्वरूप हैं। ....राष्ट्र की एकता के अर्थ में वह इंग्लैण्ड, फ्रांस अथवा जर्मनी के समान एक राष्ट्र नहीं है। मानव वंश शास्त्र के अनुसार वे सब विभिन्न वंशों से हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से वे किसी अज्ञात स्थान से यहाँ बसने के लिए देशान्तरित होकर इस देश में आये हैं। .... वे क्रमागत लुटेरे और आक्रान्ता हैं, जो अन्त में इस उर्वरा भूमि में आकर बस गये और जिसके परिणामस्वरूप उनमें एक-दूसरे के लिए प्रति अंतर्निहित वैर-भाव है।''
 
अंग्रेजों के इस कुप्रचार से तत्कालीन भारतीय नेतृत्व पूरी तरह प्रभावी था और उसे भारत की अन्तर्निहित धार्मिक और सांस्कृतिक एकता का संभवत: ज्ञान नहीं था। परिणामत: कांग्रेस और उसके नेताओं ने देश के लिए एक संघीय संरचना का विचार किया और तदनुसार देश का संविधान तैयार किया गया। कांग्रेस ने 1923 में भाषावार प्रान्तों के गठन की नीति को स्वीकार किया था। इसके परिपालन में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया और भाषावार प्रदेशों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया गया। इसके क्या परिणाम और दुष्परिणाम हुए, इससे सभी अवगत हैं। किसी भी भाषा को भौगोलिक सीमा में बांधकर नहीं रखा जा सकता है और न ही भौगोलिक सीमा में बांधने पर उसका विकास हो सकता है। परिणाम यह हुआ कि भाषा पर आधारित बने प्रान्तों में भी अलगाव की भावना उत्पन्न हुई और क्षेत्रीय आधार पर नये राज्यों के निर्माण की माँग होने लगी। जैसे महाराष्ट्र में विदर्भ और आंध्र में तेलंगाना राज्य की माँग।
 
श्री गुरुजी का स्पष्ट विचार था कि राष्ट्रजीवन की एकता के लक्ष्य की दिशा में ''सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के संविधान से संघीय राज्य की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें।.... भारत के अन्तर्गत अनेक स्वायत्ता तथा अर्ध्दस्वायत्ता राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधानमण्डल, एक कार्यपालिका घोषित करें। इसमें खण्डात्मक, क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक, भाषायी अथवा अन्य प्रकार के गर्व का चिन्ह भी नहीं होना चाहिए।''
 
परन्तु दुर्भाग्य से उनकी यह अपेक्षा अपेक्षा मात्र ही रही। आज जो स्थिति है, उसकी चर्चा यहाँ अनावश्यक है। श्री गुरुजी ने ऐसी अपेक्षा की थी कि इस विचार को कार्यान्वित करने में जो महापुरुष आगे आयेगा, उसे भावी संतति अपने शंकराचार्य का वर्तमान स्वरूप अथवा अब्राहम लिंकन के भारतीय समकक्ष मानकर उनकी पूजा करेंगी।
 
चीनी आक्रमण और भारत-पाक युध्द
चीन द्वारा भारत पर आक्रमण से पूर्व 2 फरवरी, 1960 को ही श्री गुरुजी ने एक संवाददाता सम्मेलन में आशंका व्यक्त की थी कि चीन की नीयत ठीक नहीं है। उसके पूर्व भारत सरकार तिब्बत को चीन का अंग मान चुकी थी। श्रीगुरुजी की चेतावनी पर कलकत्ता के एक दैनिक पत्र के सम्पादक ने लिखा था कि, ''गुरुजी गैर जिम्मेदारी की बात कर रहे हैं और यदि ऐसा होता तो क्या सरकार को यह पता नहीं लगता?'' परन्तु चीन का आक्रमण होने पर समाचार-पत्र ने लिखा, ''आपका कहना ठीक है।'' यह पूछे जाने पर कि चीन के आक्रमण का सामना कैसे किया जा सकता है? इस पर श्रीगुरुजी का उत्तर था : ''इसके लिए शक्ति का आधार चाहिए तभी वार्ता करना भी ठीक रहता है। हमारी शक्ति का शत्रु को अनुभव हो सके, ऐसा व्यवहार करना चाहिए।''
 
1965 में पाकिस्तान से हुए युध्द में भारत की विजय पर उन्होंने कहा था : ''यह जो अभी लड़ाई हुई, उसने यह सारा चित्र बदल दिया है। अब लोगों की समझ में आ गया कि बिल्कुल शांत और चुपचाप बैठा हुआ, बहुत ही नम्रता से व्यवहार करने वाला यह जो हिन्दू समाज है, वह जितना नम्र उतना ही कठोर भी है, जितना सब लोगों के साथ भाईचारा करने के लिए उत्सुक, उतना ही कठोर प्रहार करने की ताकत भी अपने अन्दर रखने वाला है और उसमें जीतता है।''
 
उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि श्रीगुरुजी भारत के राजनीतिक जगत् के प्रति उदासीन नहीं थे और राष्ट्र-हित से संबंधित छोटी से छोटी घटना या प्रसंग के प्रति वे सर्वदा जागरूक रहे। कम्युनिस्ट चीन को अपने देश की सुरक्षा के लिए गम्भीर संकट बताने की घोषणा करने वाले वे देश में प्रथम व्यक्ति थे। जिस समय तथाकथित पंचशील के नाम पर 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का अत्यन्त उच्च स्वर से उद्धोष किया जा रहा था तब श्रीगुरुजी ने भारत सरकार सहित समस्त देशवासियों के समक्ष स्पष्टतम शब्दों में यह रहस्योद्धाटन कर दिया था कि चीन ने भारत के अक्षय चीन और अरुणाचल के बड़े भूभाग को हड़प लिया है। यदि भारत के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने श्रीगुरुजी की उक्त तथ्यपूर्ण चेतावनी की ओर भाव देकर उनके द्वारा भारत को आण्विक शक्तिसम्पन्न राष्ट्र बनाने की दिशा में अग्रसर होने की ओर पग बढ़ा दिया होता तो संभवत: अक्तूबर, 1962 में चीन को भारत के विरुध्द खुला सैनिक आक्रमण करने का दुस्साहस न हो पाता। इस सबके बावजूद श्रीगुरुजी का यह सुविचारित और सुनिश्चित मत था कि राजनीति कभी भी जीवन-सर्वस्व नहीं हो सकती और एक राष्ट्र की अजेय शक्ति उसके जन-समाज में व्याप्त गंभीरतम जागरूकता, एकजुटता तथा संगठित सामाजिक सामर्थ्य में निहित है।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.