श्रीगुरुजी और मातृ-शक्ति
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
डॉ. माण्डवी दीक्षित
सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी, परमत्यागी, निस्पृह संन्यासी, भविष्यद्रष्टा श्रीगुरुजी की प्रखर मेधाशक्ति एवं चिन्तन शैली के विषय में जितना भी लिखा या कहा जाए, कम है। अपितु यों कहा जाए कि सूर्य को दीपक दिखाने जैसा ही कार्य है। जहाँ एक ओर ज्ञान की कोई भी शाखा उनकी प्रतिभा से अछूती नहीं रही, वहीं दूसरी ओर राष्ट्र-भक्ति व समाज-सेवा उनके जीवन का परम लक्ष्य रहा। राष्ट्र-जीवन से जुड़ा ऐसा कोई भी प्रश्न नहीं था जिस पर सम्यक् दृष्टि से विचार करते हुए उन्होंने दिशा-निर्देश न दिया हो। समाज के सभी अंग यथा छात्र, शिक्षक, बाल, युवा, वृध्द सभी को श्रीगुरुजी का उद्बोधान व मार्गदर्शन समय-समय पर मिलता रहा। मातृ-शक्ति भी समाज का एक अनिवार्य अंग है, अत: उसकी उपेक्षा भी श्रीगुरुजी कैसे कर सकते थे? अपने अनेक उद्बोधानों में श्रीगुरुजी ने माताओं के दायित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके गरिमामय पवित्र जीवन को नमन किया है।
 
त्रिविध रूप
श्रीगुरुजी ने नारी जगत् के मातृ स्वरूप को ही सर्वोत्कृष्ट एवं परमादरणीय स्थान प्रदान किया है। वे मातृत्व के त्रिविध रूपों माता, मातृभूमि एवं शक्तिस्वरूपा जगन्माता की वन्दना करते हैं। जन्मदात्री माता शिशु को जन्म देने से पूर्व उसके शरीर का अपने रक्त से, जन्म के पश्चात् दूध से तथा आजीवन प्रेम से पोषण करती है। अत: जन्मदात्री माँ आदरणीया है, पूज्या है।
जन्मदात्री माँ के समान ही मातृभूमि भी आराध्य है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही इस मातृभूमि की सन्तान होने के कारण हमारा राष्ट्र-जीवन रहा है, जो हमारी सभ्यता व संस्कृति द्वारा परिलक्षित होता है। माता, मातृभूमि के साथ ही सर्वसृष्टि को जन्म देने वाली शक्तिस्वरूपा जगन्माता की आराधना भी की जानी चाहिए। शिव के साथ शक्ति की पूजा स्वाभाविक रूप से जुड़ी है। यही जगन्माता मातृत्व का मूल स्वरूप है। अत: माता मातृभूमि एवं शक्ति स्वरूपा जगन्माता के साथ हमारा माँ-पुत्र का अभिन्न और अटूट नाता है, इस भावना के साथ उसकी उपासना करनी चाहिए।
 
महत्वपूर्ण भूमिका
श्रीगुरुजी ने राष्ट्रीय व सामाजिक जीवन में मातृशक्ति की भूमिका पर अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करते हुए अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य को पशुत्व से मनुष्यता की ओर और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले जाने में मातृशक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा व संस्कार देकर राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा को अक्षुण्ण रखने का कार्य मातृ-शक्ति ही कर सकती है। यद्यपि श्रीगुरुजी माताओं को 'चूल्हा-चौका' तक सीमित रखने के पक्ष में नहीं थे, तथापि उनका मत था, भारतीय सामाजिक आदर्श-जीवन के अन्तर्गत केवल 'घर' में सीमित रहकर भी मातायें अपने दैनिक कार्यों की कुशल संयोजना द्वारा संस्कृति-सम्वर्ध्दन का कार्य कर सकती है। इसके लिए अलग से कुछ करने या सीखने-सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
 
पावित्र्य पर बल
भारतीय जीवन पध्दति में पवित्रता का विशेष महत्व है। श्रीगुरुजी के अनुसार हमें इस पवित्रता की रक्षा प्राण-पण से करनी चाहिए, उसके लिए चाहे कितना भी कष्ट उठाना पड़े अथवा बलिदान देना पड़े। माताओं के सन्दर्भ में बात और भी विचारणीय है। दुश्मनों के आक्रमण के कारण अथवा सामाजिक जीवन में व्याप्त उच्छृंखलता के फलस्वरूप जब मातृ-शक्ति के शील और पवित्रता को खंडित करने का प्रयास किया जाए, तब उसका कठोर प्रतिकार होना ही चाहिए। इसके लिए स्वयं माताओं को ही अपने पराक्रम, शौर्य, कौशल और स्वाभिमान का प्रदर्शन करना होगा। अपने शील, पवित्रता व स्वाभिमान की रक्षा के लिए चित्तौड़ की ललनाओं द्वारा किया गया जौहर-व्रत त्याग व बलिदान का प्रशंसनीय उदाहरण है, किन्तु उसमें मातृत्व के शक्तिस्वरूप का दर्शन नहीं होता अर्थात् ऐसी विषम परिस्थितियों में माताओं को स्वयं दुर्गास्वरूपा होकर ऐसे आततायी, निकृष्ट व्यक्तियों को दंडित करने का साहस उत्पन्न करना चाहिए। हमारा इतिहास, हमारी संस्कृति इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि अनेक बार भारतवर्ष की मातृ-शक्ति ने दुर्गा रूप धारण कर देश, धर्म तथा समाज पर आने वाले संकटों से उसकी रक्षा की है, अपने स्वाभिमान को अक्षुण्ण रखा है। आज भी राष्ट्र व समाज के निर्माण के लिए ऐसी ही प्रचण्ड मातृ-शक्ति की आवश्यकता है। अब तो माताओं पर घर व बाहर दोनों का संयुक्त दायित्व है। जीवन में आदर्श व व्यवहार में समन्वय आवश्यक है। शान्तिकाल में सुव्यवस्थित जीवन और संकट काल में पराक्रम का प्रदर्शन ही हमारे जीवन का आधार है। एक ओर अविच्छिन्न सांस्कृतिक धारा को अक्षुण्ण प्रवाहित रखने का दायित्व, दूसरी ओर देश-काल की स्थितियों-परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उचित कौशल व पराक्रम का प्रदर्शन कर रही मातायें अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वहन कर सकती हैं। भारत की मातृ-शक्ति के प्रति व्यक्त किए गए श्रीगुरुजी के ये विचार वर्तमान राष्ट्रीय-सामाजिक परिस्थितियों में अत्यन्त प्रेरणादायी एवं अनुकरणीय हैं।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.