डॉ सैफुद्दीन जिलानी से वार्तालाप
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
30 जनवरी 1971 कोलकाता
डॉ जिलानी : हिन्दू और मुसलमानों के बीच आपसी सद्भावना बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे-बडे झगडे होते ही रहते हैं। इन झगड़ों को मिटाने के लिए आपकी राय में क्या किया जाना चाहिए?
श्री गुरुजी : आप अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण हमेशा बताते हैं। वह कारण है गाय। दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते। परिणामत: देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है। मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिए कोई कारण नहीं दिखाई देता। इस्लाम-धर्म-गोहत्या का आदेश नहीं देता। पुराने जमाने में हिन्दुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा। अब वह क्यों चलना चाहिए?
 
डॉ जिलानी : आपकी राय में आपसी सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन से कदम उठाए जाने चाहिए?
श्री गुरुजी : व्यापक पैमाने पर धर्म की यथार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है। राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्पित आज जैसी धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थों में धर्म-शिक्षा लोगों को इस्लाम व हिन्दू धर्म का ज्ञान कराए! सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं। यही लोगों को सिखाया जाए। दूसरा, जैसा हमारा इतिहास है, वैसा ही हम पढ़ाएँ। आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विकृत रूप में पढ़ाया जाता है। मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो, तो वह हम स्पष्ट रूप से बताएँ, परन्तु साथ ही यह भी बताएँ कि वह आक्रमण भूतकालीन है और विदेशियों ने किया है। मुसलमानों से यह कहें कि वे इस देश के हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं है।
डॉ. जिलानी : .. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसंद करेंगे?

श्री गुरुजी : केवल पसंद ही नहीं करूँगा, ऐसी भेंट का मैं स्वागत करूँगा। इस्लाम-पंथ-अनुयाइयों को या उनके सम्बन्ध में श्री गुरुजी द्वारा पत्र-लेखन के माध्यम से 'संत हृदय नवनीत समाना' का परिचय देते हुए एक सच्चे युगदृष्टा एवं राष्ट्रनिर्माता की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई गई है।
 
आध्यात्मिक क्षेत्र में सब समान
श्री विजय राव वाडेकर, पुणे, 10 अप्रैल 1966
आप श्री साईं महाराज के भक्त हैं, उत्तम है, आध्यात्मिक क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई नामों का महत्त्व नहीं, यह श्रेष्ठ पुरुषों का कथन है। जहाँ मन को शांति मिलेगी, विकारों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति मिलेगी, मन संतुलित होगा, निर्लिप्तता से स्वार्थ-रहित होकर जीवमात्र के प्रति ईश्वर का निवास अनुभव कर कर्तव्य करने की अखण्ड प्रेरणा अंत:करण में विद्यमान रहेगी, वहाँ पूर्ण श्रध्दा रखकर स्वयं की सच्ची उन्नति करना उचित है। मनुष्य को जन्म से अनेक कर्तव्य प्राप्त होते हैं। .. ये कर्तव्य पूर्ण करते समय, अखिल मानवों के प्रति, जीवमात्र के प्रति, चराचर के प्रति ऐक्य ज्ञान (समबुध्दि) से विशुध्द प्रेम ..आपको श्री साईं महाराज पर निष्ठा रखकर वह सब प्राप्त हो रहा है, तो वह भक्ति अत्यंत उचित है। .. स्वधर्म से वंचना करने को भी अभिजात साक्षात्कारी महापुरुष नहीं कहता, अपितु स्वधर्म उत्तम रीति से पालन करने की प्रेरणा देता है। अत: आप यह कल्पना भी अपने मन को न छूने दें कि साईं महाराज की भक्ति करने से आप हिन्दू धर्मनिष्ठ नहीं रह जाते।
मजहब नहीं, मानव लड़ाते हैं
श्री गोपाल, चेन्नई 26 दिसम्बर, 1971 (अंग्रेजी)
पवित्र कुरान के कुछ अंश, जो आपने कृपा करके मेरे पास भेजे थे, प्राप्त हुए। मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ। वैसे तो मजहब आपस में नहीं लड़ते और किसी न किसी बहाने मानव-समूह ही लड़ते हैं। मन पर मजहबों की शक्तिशाली पकड़ के कारण उन समुदायविशेषों को परस्पर संघर्ष छेड़ने में मजहब का बहाना अत्यंत उपयोगी व सुविधाजनक रहता है। हम आशा करें कि परमात्मा की कृपा से मानवीय हृदय में सद्भावना का उदय होगा।
सभी पवित्र पर्वों से भगवान की भक्ति
श्रीमान मुहम्मद रफी जी, दिल्ली, 03.03.1970
ईद-उल्जुहा तथा होली के पावन पर्व के उपलक्ष्य में आपने बधाइयाँ प्रकट की हैं।
.. सभी पवित्र पर्व, किसी भी मत के क्यों न हों, मानव मात्र को भगवान की भक्ति उत्कटता से करने का स्मरण करा देते हैं। उनमें से कुछ विचित्र प्रथाएँ भी बन जाती हैं। परन्तु उनसे मूल शुध्द हेतु को पृथक कर ग्रहण करने से सबका कल्याण हो सकता है। आपके पत्र से यही शुध्द भाव गोचर हो रहा है, जिसके लिए आपका हार्दिक अभिनंदन करता हूँ।
मुस्लिम नवदम्पति का अभिनंदन
श्री अनवर अली देहलवी, दिल्ली 05.09.1972
प्रिय बंधु चि. श्री आसिफ अली तथा उनकी नवविवाहिता चि. सौ. साहीन सुलताना का स्वागत तथा अभिनन्दन करने के लिए आयोजित कार्यक्रम का निमन्त्रण आज मिला। बहुत आनन्द हुआ। यद्यपि मैं प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं हो सकता हूँ, नवदम्पत्ति के प्रति मेरी शुभकामनाएँ समर्पित कर, उन्हें सब प्रकार से सुखी, समृध्द, सुदीर्घ आरोग्य प्राप्त हो, धर्म तथा राष्ट्र सेवा में उनकी नित्य उन्नति हो, इस हेतु पर कृपालु श्री भगवान के पास प्रार्थना करता हूँ।
डॉ. एस जिलानी की मृत्यु पर संवेदना
डॉ. सुजित धर, कोलकाता, 24.11.1968
मेरे प्रिय मित्र डॉ. सैफुद्दिन जिलानी के 17.11.68 को देहान्त का समाचार मिला। मुझे गहरा आघात लगा। मुझे आश्चर्य है कि मुझे आपके द्वारा अथवा मेरे अन्य किसी सहयोगी द्वारा इस बारे में उस समय कुछ अवगत नहीं कराया गया, जब अक्टूबर के अंतिम सप्ताह और इस माह के प्रथम तीन दिन हमारी भेंट बम्बई में हुई थी। जो भी हो, अब सब कुछ समाप्त हो चुका है। अब मेरी ओर से एक कर्तव्य का पालन किया जाना है, वह है विछोह-प्राप्त पत्नी व बच्चों से मिलना और मेरी ओर से शोक-संतप्त परिवारजनों के प्रति गहरी सहानुभूति एवं सांत्वना प्रकट करना। मैं गतात्मा के लिए प्रार्थना करता हूँ। सर्वशक्तिमान परमेश्वर उन्हें शांति और आशीर्वाद प्रदान करें। मुझे आशा है कि अपने निकट और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध उनके बच्चों से भी बनाए रखेगें।
कारीगर श्री हकीम भाई की चिंता
श्री उत्सव लाल गुप्ता, जोधपुर (राजस्थान), 25 मार्च 1961
.. नागपुर में परम पूजनीय डॉ. साहब के स्मृति-मंदिर का काम करने के लिए श्री हकीम भाई यहाँ है। उन्होंने बड़े परिश्रम, लगन तथा कुशलता से काम चलाया है। उनके निवास स्थान में उनकी कुछ भूमि पर नगरपालिका अधिकार करने की चेष्टा में है तथा नागौर जिला प्रमुख (कलेक्टर) के पास वैसा सुझाव दिया गया है। इस भूमि का नगर पालिका ने ले लेना (नगर पालिका द्वारा ले लिया जाना-संपादक) श्री हकीम भाई के पूरे परिवार के लिए बहुत हानिकारक होने की संभावना है। अत: किसी योग्य व्यक्ति के द्वारा कलेक्टर साहब को समझाकर भूमि बचाई जाए, यह उचित होगा। श्री हकीम भाई यहाँ काम में लगे हैं। उनके घर पर उनके वृध्द पिताजी ही हैं। वे बहुत चिंतित हैं। अत: आपके उपर यह काम सौंपना ही मुझे आवश्यक प्रतीत होता है।
दृष्टव्य -
इन पंक्तियों के लेखक को 'राष्ट्रधर्म' मासिक के संपादक के रूप में 1985 में रेशिमबाग परिसर, नागपुर के व्यवस्थापक श्री बाबुराव वाघ द्वारा यह जानकारी दी गई थी कि श्री गुरुजी के व्यवहार से अभिभूत होकर मुसलमान कारीगर पैर काट देने वाले पत्थर पर भी जूते पहनकर काम नहीं करते थे, अपितु अपने तलवों में पेड़ों की पत्तियाँ बाँधकर काम चलाते थे।
 
छोटे भाई की भलाई करने में कौन सी बड़ी बात!
श्री एम. ए. कादरी, लश्कर ग्वालियर, 2-09-1966
आपका पत्र आया। मैं प्रवास में था। मैं कभी उधर आया तो आपसे मिलने का आनंद प्राप्त होगा ही। आपकी परीक्षा पूरी होकर आप सफल होंगे, यह इच्छा है। आगे आप किस स्थान पर काम करेंगे, उसकी मुझे सूचना अवश्य भेजिएगा, जिससे मैं उस बाजू जब जा सकूँगा, आपको सूचित कर सकूँगा। यदि हम लोगों के कारण आपको कुछ सहायता पहुँचती हो, तो उसके लिए बहुत आभारी होने का कारण नहीं है। अपने से छोटे भाई की भलाई के लिए जो हो सके करना ही चाहिए। उसमें कौन सी बड़ी बात है?
पहले अपना घर ठीक करो
श्री एस. करीमवक्ष जी, नेल्लोर
.. आपने लिखा विचार अच्छा है। हम लोग किसी व्यक्ति से विरोध नहीं करते, न ही ऐसा मानते हैं कि किसी समाज में सब अच्छे या बुरे होते है। परन्तु हम लोगों ने प्रथम अपने हिन्दू समाज को चारित्र्यवान तथा संगठित रूप देने का काम उठाया है। पहले अपना घर ठीक करो, फिर औरों को उपदेश दे सकोगे, ऐसा जानकार कहते हैं। इसी के अनुसार यह काम चल रहा है। और इसी कारण आपसे व्यक्ति इस नाते प्रेम, बंधुभाव तथा आदर रखते हुए भी प्रत्यक्ष कार्य से आप जैसे सज्जनों को संबन्धित नहीं कर रहे हैं। कुछ काल के पश्चात् यह सुयोग भी प्राप्त होने की हमें आशा है। उसी दृष्टि से अपने हिन्दू समाज में कार्य को द्रुत गति से बढ़ाने का प्रयास चल रहा है।
भारत से एकनिष्ठा अनिवार्य
पं. पद्मकान्त मालवीय, सम्पादक, 'अभ्युदय' इलाहाबाद, 11 अक्टूबर 1964
आपने लिखा है कि भारत के मुसलमान बंधुओं को हम लोगों की ओर से अभय मिले। वे भारत से एकनिष्ठ रहें, तो उनका मजहब भिन्न होने मात्र से उनके प्रति किसी प्रकार अन्याय या आपत्तिजनक व्यवहार न हो, वह भारत, भारतीय राष्ट्र-परम्परा तथा भारतीय महापुरुषों के प्रति श्रध्दा, भक्ति, सम्मान तथा राष्ट्रार्थ उद्यमशील रहकर भारत के विरोधियों से उसकी रक्षा के लिए सर्वप्रकार सन्नध्द होकर खड़ा होना - इन गुणों से परिपूरित होकर जो चले, वह किसी नाम से भगवान् की उपासना करता है, किस पध्दति से करता है, इसका विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
मुसलमान स्वयं सोचे -
विजयवाड़ा में गाँधीवादी श्री रंगा रेड्डी ने श्री गुरुजी से पूछा - 'आपके संगठन में एक भी मुसलमान नहीं है। इसलिए आप और आपका संगठन राष्ट्रविरोधी है।'
श्री गुरुजी ने कहा :- संघ का स्वयंसेवक होने के नाते मैं इस्लाम-विरोधी नहीं हूँ, न ही रह सकता हूँ। किसी अन्य मत को स्वीकार करने पर किसीको अपनी राष्ट्रीयता नकारने का क्या कारण हो सकता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। केवल भारत में रहने वाले मुसलमानों की ही यह विशेषता है। अन्य राष्ट्रों में मुसलमानों का व्यवहार इस प्रकार का नहीं है। .. इस्लाम के विषय में संघ की धारणा यह है कि एक मत के नाते वह इस्लाम का समुचित आदर करता है, परन्तु अपनी राष्ट्रीय संस्कृति के स्थान पर इस्लामी या अन्य किसी संस्कृति व परम्परा को प्रस्थापित करने में वह कभी भी अनुकूल नहीं रहेगा। .. मुसलमानों के संघ-प्रवेश के सम्बन्ध में वैचारिक संघर्ष करने का कोई कारण नहीं है। इस बारें में स्वयं मुसलमान ही सोचें। एक हिन्दू के नाते मैं किसी को बलात् या प्रलोभन से कुछ भी करने के लिए नहीं कहूँगा।