क्रांतिवीर तात्या टोपे और वेश्या
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
सामाजिक कार्यकर्ताओं का आत्मबल और चरित्र उज्ज्वल होना अति आवश्यक है। इससे वे सभी तरह के लोगों की क्षमता का अपने कार्य में उपयोग कर लेते हैं। 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था। प्रख्यात क्रांतिकारी तात्याटोपे के पीछे अंग्रेज पुलिस पड़ी थी। वे छिपने के लिए जिस घर में घुसे, वह एक वेश्या का था। वेश्या ने जब उन्हें देखा, तो उनके व्यक्तित्व एवं साहस से वह बहुत प्रभावित हुई। उसने अपने स्वभाव के अनुरूप अपना शरीर उन्हें अर्पित करना चाहा। पर तात्या टोपे वेश्या के मोहजाल में नहीं फँसे। उन्होंने उसे स्पष्ट बता दिया कि उनके जीवन का लक्ष्य शरीर सुख प्राप्त करना नहीं अपितु देश को स्वतन्त्र कराना है। यदि वह उनसे प्यार करती है, तो अपनी सम्पूर्ण धन-सम्पदा को देश हेतु समर्पित कर दे। वेश्या ने ऐसा ही किया। इतना ही नहीं तो जब तक वह जीवित रही, क्रांतिकारियों को हर प्रकार का सहयोग करती रही। तात्या टोपे ने अपने उज्ज्वल चरित्र एवं लक्ष्य के प्रति अटूट निष्ठा से वेश्या के मन को भी बदल दिया।

वयं पंचाधिकं शतम्
हमारे बीच भले ही कितने मतभेद हों; पर यदि कोई बाहरी संकट आये, तो सबको एकजुट होकर उसका मुकाबला करना चाहिए। इस संबंध में महाभारत का एक प्रसंग श्री गुरुजी सुनाते थे। जुए में हारने के बाद पांडव अपने बारह वर्ष के वनवास-काल में एक बार द्वैतवन में ठहरे हुए थे। जब दुर्योधन को यह पता लगा, तो उसने उन्हें अपमानित करने के लिए अपने भाइयों के साथ वहाँ जाने का निश्चय किया। उसके आदेश पर सब अच्छे वस्त्र व आभूषण पहनकर अपने वैभव का प्रदर्शन करते हुए चल दिये। चलते-चलते वे द्वैतवन के सरोवर के पास पहुँचे। वहाँ गंधर्वराज चित्रसेन अपने परिवार सहित ठहरा हुआ था। दुर्योधन के कर्मचारी जब वहाँ डेरे-तम्बू लगाने लगे, तो चित्रसेन ने उन्हें मना किया; पर वे नहीं माने। इस पर उसने दुर्योधन के कर्मचारियों को भगा दिया। यह पता लगने पर दुर्योधन ने युध्द छेड़ दिया; पर चित्रसेन ने उन्हें पराजित कर बंदी बना लिया। कुछ सैनिक रोते-चिल्लाते पांडवों के पास जा पहुँचे। दुर्योधन की पराजय सुनकर भीम को बहुत खुशी हुई। वह बोला - बहुत अच्छा हुआ। हमें परेशान करने का उसे अच्छा दंड मिला। अब उसे चित्रसेन की कैद में ही पड़ा रहने दो। लेकिन युधिष्ठिर ने कहा - दुर्योधन चाहे जैसा भी हो; पर है तो हमारा भाई ही। आपसी संघर्ष में हम सौ और पाँच हैं; पर यदि किसी तीसरे से युध्द होता है, तो हम एक सौ पाँच हैं (वयं पंचाधिकं शतम्)। यह कहकर उन्होंने अर्जुन को भेजकर सबको छुड़वाया। संघ की मान्यता है कि देश के बारे में हमें सदा धर्मराज युधिष्ठिर के वाक्य को ही आधार बनाकर कार्य करना चाहिए।
हाथी और अंधे
संघ का असली स्वरूप क्या है? यह प्राय: लोग नहीं समझ पाते। शाखा में स्वयंसेवकों को खेलते या गीत गाते देख कुछ लोग इसे खेलकूद या गायन-क्लब समझ लेते हैं। स्वयंसेवकों द्वारा चलाये जाने वाले विद्यालय, चिकित्सालय आदि को देखकर कुछ लोग संघ को सेवा-संस्था मान लेते हैं। पर यह सब संघ का एक पक्ष है। इस संबंध में श्री गुरुजी हाथी और अंधे वाली कथा सुनाते थे।
 
एक गाँव में कुछ अंधे रहते थे। एक बार वहाँ एक हाथी आ गया। उसके गले में लटके घंटे की टन-टन सुनकर वे अंधे भी उसके पास आ गये और उसे छूकर देखने लगे। हाथी के जाने के बाद वे उसके बारे में चर्चा करने लगे। जिस अंधे ने हाथी के पैरों को छुआ था, वह बोला कि हाथी खंभे जैसा है। दूसरे ने उसके कान छुए थे, उसने हाथी को पंखे जैसा बताया। सूंड छूने वाले ने उसे तने जैसा और दुम छूने वाले ने रस्सी जैसा बताया। यही स्थिति संघ को दूर से देखने वालों की है। संघ को ठीक से जानने के लिए शाखा में आना ही एकमात्र उपाय है।
नित्य संस्कार से ही कार्य संभव है
शाखा हो या अन्य कोई सामाजिक कार्य; यदि उसे नित्य करने का संस्कार न हो, तो संकट के समय भी वह नहीं हो पाता। इस बारे में संत तुकाराम के जीवन का एक प्रसंग श्री गुरुजी सुनाते थे। संत तुकाराम हर समय भगवान के ध्यान में डूबे रहते थे। दूसरी ओर उनकी पत्नी बड़ी झगड़ालू थी। तुकाराम जी के समझाने पर वह कहती थी कि घर-गृहस्थी के इस जंजाल से मुक्ति मिले, तब तो भगवान का भजन करूँ। जब भगवान तुम पर प्रसन्न हों, तो मुझे बुला लेना। मैं भी उनके दर्शन कर लूँगी। ऐसा कहते हैं कि तुकाराम जी की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें लेने के लिए विमान भेजा। तुकाराम ने अपनी पत्नी को आवाज दी; पर वह तो घरेलू कामों में व्यस्त थी। वह बोली - मैं इस समय कैसे चल सकती हूँ। अपनी भैंस को बच्चा होने वाला है, जब तक वह ब्याती नहीं, मैं नहीं जाऊँगी। बाद में जब उसे पता लगा कि तुकाराम जी इसी शरीर से स्वर्ग चले गये, तो वह बहुत पछतायी; पर अब क्या हो सकता था ? ऐसे ही अनेक लोग कहते हैं कि हम तो आपके ही हैं। जब आप आवाज देंगे, हम आ जाएंगे; पर सच में ऐसा हो नहीं पाता। परिवार, काम-धंधों और धन-सम्पत्ति का मोह उन्हें ऐसा नहीं करने देता। इसीलिए हर दिन काम करने का संस्कार अति आवश्यक है।