धैर्य एवं वीरव्रत
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
संघ कार्य करते समय अत्यधिक धैर्य की आवश्यकता होती है। यदि ऐसा न हो, तो प्राय: काम बिगड़ जाता है। इस बारे में शृंगेरी पीठ के शंकराचार्य जी से संबंधित एक कथा श्री गुरुजी सुनाते थे। शृंगेरी पीठ के निकट स्थित एक टीले पर प्रसिध्द शिवमंदिर है। एक बार पूज्य शंकराचार्य जी वहाँ पूजा कर रहे थे। अचानक एक भयंकर नाग फुंकारता हुआ वहाँ आ पहुँचा। उनके साथ पूजा कर रहे शिष्य भयभीत हो गये। उन्होंने इशारे से शंकराचार्य जी को नाग के बारे में बताया। शंकराचार्य जी विचलित नहीं हुए। पूजा सामग्री में दूध से भरी एक कटोरी भी थी। उन्होंने वह नाग के सामने रख दी। नाग दूध पीकर वहाँ से चला गया। सब शिष्य आश्चर्यचकित रह गये। श्री गुरुजी की मान्यता थी कि संकट के समय धैर्य रखकर रास्ता निकालना तथा अपनी साधना करते रहना ही वीरव्रत है। ऐसे वीरव्रत और धैर्य से ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

आपत्तियों का भी स्वागत
सामाजिक कार्यकर्ताओं को आराम या प्रतिष्ठा के बदले प्राय: कष्ट तथा अपमान ही सहना पड़ता है; पर सच्चा कार्यकर्ता इन सबका हँसकर स्वागत करता है। संत तुकाराम जी का जीवन भी ऐसा ही था। उनके मित्रों, रिश्तेदारों और समाज के लोगों ने उनकी निन्दा की। उन्हें पीटा, उनके रास्ते में काँटे बिखेरे। उन्हें धोखा दिया, जिससे उनकी दुकान बन्द हो गयी; पर वे सदा ईश्वर भजन में लगे रहे। उनकी पहली पत्नी बहुत अच्छे स्वभाव की थी; पर वह कम समय ही जीवित रही। दूसरी पत्नी बहुत कर्कश स्वभाव की थी। इस पर भी तुकाराम जी सदा ईश्वर को धन्यवाद ही देते हुए कहते थे - हे ईश्वर, तेरी बड़ी कृपा है कि ऐसी पत्नी मिली है। इस कारण मुझे सदा तेरा स्मरण बना रहता है। श्री गुरुजी कहते थे कि सच्चा कार्यकर्ता प्रत्येक कठिनाई को ईश्वर का प्रसाद समझकर स्वीकार करता है। असली सोना अग्निपरीक्षा से कभी घबराता नहीं, क्योंकि उसमें से वह और अधिक खरा होकर निकलता है।

सब समस्याओं का निदान : संघ शाखा
किसी समय चैतन्य महाप्रभु की ख्याति एक श्रेष्ठ विद्वान की थी; पर भक्तिमार्ग अपनाने के बाद उनका विद्वत्ता का सारा अहंकार धुल गया। उनके हृदय में वैराग्य का संचार हुआ तथा उन्हें साक्षात भगवान कृष्ण के दर्शन भी हुए। अब वे हर समय नाम-संकीर्तन में व्यस्त रहने लगे। उन्होंने भाषण और वाद-विवाद बन्द कर दिये। अब जो भी उनके पास आता, वे उसे 'हरिबोल' कीर्तन करने को कहते। 'हरिबोल : हरिबोल' कहते-कहते वे झूमने लगते और उन्हें समाधि लग जाती थी। उनको इस अवस्था में देखकर अनेक नास्तिक लोग भी आस्तिक बन गये। यही स्थिति संघ के संस्थापक पूज्य डा. हेडगेवार की थी। उन्होंने भी बहुत सी संस्थाओं और संगठनों के साथ कार्य किया। आंदोलन किये, भाषण दिये, लेख लिखे और समाचार पत्र भी चलाये; पर संघ-स्थापना के बाद उन्होंने सब तरफ से हाथ खींच लिया। अब यदि कोई व्यक्ति उनके पास अपने क्षेत्र, धर्म या देश की किसी समस्या को लेकर आता, तो वे एक ही सूत्र बताते - सारी शक्ति लगाकर अपनी शाखा को मजबूत करो। इसी से सब समस्याओं का निदान होगा। श्री गुरुजी कहते थे कि जैसे चैतन्य महाप्रभु के 'हरिबोल' नामक मंत्र ने पूर्वोत्तर भारत में व्यापक चेतना जगायी, ऐसे ही डा. हेडगेवार का 'संघ शाखा' नामक सूत्र पूरे भारत को जाग्रत करने में सक्षम है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस सूत्र के प्रति सच्ची निष्ठा एवं श्रध्दा रखें।