व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
हर व्यक्ति का व्यक्तिगत चरित्र तो उज्ज्वल होना ही चाहिए; पर उसके राष्ट्रीय चरित्र के उज्ज्वल होने का महत्त्व उससे भी अधिक है। इस संबंध में श्री गुरुजी गुजरात का एक उदाहरण सुनाते थे। गुजरात के एक राज्य में राजा कर्ण के प्रधानमंत्री बहुत विद्वान एवं कलामर्मज्ञ थे। एक बार राजा ने अपने राज्य के एक वरिष्ठ सरदार की पत्नी का अपहरण कर लिया। प्रधानमंत्री ने राजा को उसकी गलती समझाने का प्रयास किया; पर न मानने पर वह क्रोधित हो गया। उसने राजा को दंड देने की प्रतिज्ञा की। प्रधानमंत्री ने क्रोध में अपना विवेक खो दिया। उसने दिल्ली के मुगल सुल्तान से सम्पर्क कर उन्हें अपने ही राज्य पर आक्रमण करने को उकसाया। मुगल सुल्तान को और क्या चाहिए था। उसने धावा बोला और राजा कर्ण की पराजय हुई। प्रधानमंत्री की प्रतिज्ञा पूरी हुई। पर इसके बाद क्या हुआ ? मुगलों ने राज्य में कत्लेआम मचा दिया। मंदिरों को तोड़ा, महिलाओं को अपमानित किया, गायों को काटा, हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चों को आग में झोंक दिया, जिनमें उस प्रधानमंत्री के परिवारजन भी शामिल थे। इसके बाद भी वह सुल्तान वापस नहीं गया। उसने सैकड़ों साल तक उस राज्य को अपने अधीन रखा। इतना ही नहीं, वहाँ पैर जमाने के बाद उसने दक्षिण के अन्य राज्यों पर भी हमला बोला और वहाँ भी इसी प्रकार हिन्दुओं को अपमानित होना पड़ा। यह घटना बताती है कि राजा का राष्ट्रीय चरित्र तो ठीक था; पर निजी चरित्र नहीं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री का निजी चरित्र ठीक था; पर राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में उसके राज्य को मुगलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

परोपकार भावना
अनेक लोग कहते हैं कि आज के भौतिकवादी युग में व्यक्ति केवल पैसे के लिए ही काम करता है; पर श्री गुरुजी कोलकाता की एक घटना सुनाकर बताते थे कि मन के संस्कार और परोपकार की भावना पैसे से अधिक प्रभावी होती है। बड़े शहरों में आजकल भूमिगत नालियाँ, सीवर लाइन आदि बन गयी हैं। इन्हें साफ करने के लिए गङ्ढे बनाकर उसे ढक्कन से ढक देते हैं। पर कई बार इनके ढक्कन खुले रह जाते हैं। कोलकाता में एक मोहल्ले में ऐसी ही एक नाली का ढक्कन खुला रह गया। दो बच्चे वहीं पास खेल रहे थे। खेलते-खेलते वे उसमें गिर पड़े और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। पास से ही एक व्यक्ति अपने काम पर जा रहा था। आवाज सुनकर उसने नीचे झाँका। बच्चों को चिल्लाता देखकर वह साइकिल से उतरा और गङ्ढे में उतर गया। उसने प्रयासपूर्वक दोनों बच्चों को अपने कंधो पर उठा लिया और किसी तरह गङ्ढे से बाहर निकाल दिया। पर इस बीच वह स्वयं बेहोश हो गया। क्योंकि इन नालियों में मलमूत्र प्रवाहित होते रहने के कारण जहरीली गैस भर जाती हैं। वह व्यक्ति उस गैस के दुष्प्रभाव से बेहोश होकर वहीं गिर गया। जब तक लोगों ने उसे बाहर निकाला, तब तक उसने दम तोड़ दिया। यह कथा सुनाकर श्री गुरुजी कहते थे कि उस व्यक्ति का दोनों बच्चों से कोई परिचय नहीं था। उनको बचाने से उसे रुपये-पैसे का लाभ भी नहीं मिलने वाला था। फिर भी वह अपनी जान की चिंता किये बिना गङ्ढे में उतरा और उनकी जान बचायी। स्पष्ट है कि हर जगह पैसा ही महत्त्वपूर्ण नहीं होता। कई बार परोपकार की भावना और संस्कार भी व्यक्ति की गतिविधियों को संचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
शिक्षित कौन ?
अनेक लोग स्वयं को शिक्षित और प्रगतिशील दिखाने के चक्कर में अपने हिन्दू प्रतीकों और नामों की उपेक्षा करते दिखते हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए श्री गुरुजी ने एक बार यह कथा सुनायी। गाँव में रहने वाले एक निर्धन सज्जन ने अनेक कष्ट उठाकर भी अपने बच्चों को पढ़ाया। सौभाग्य से उनका एकमात्र पुत्र पढ़-लिखकर उच्च अधिकारी बन गया और एक बड़े शहर में उसकी नियुक्ति भी हो गयी। उचित समय पर उन्होंने पुत्र का विवाह किया। विवाह के बाद वह युवक पत्नी सहित शहर में ही रहने लगा। दो साल इसी प्रकार बीत गये, एक दिन उन्हें समाचार मिला कि उनके बेटे के घर में पुत्र का जन्म हुआ है। वे बहुत प्रसन्न हुए तथा अपने पौत्र को देखने की इच्छा से शहर की ओर चल दिये। जिस समय वे अपने बेटे की कोठी पर पहुँचे, वह अपने मित्रों के साथ बैठा चाय पी रहा था। जब उसने अपने पिता को आते हुए देखा, तो वह घबरा गया। उसने सोचा कि मेरे ये मित्र क्या सोचेंगे कि ऐसा गँवार और निर्धन व्यक्ति उसका पिता है। उसने एक नौकर को भेजा, जिससे वह पिताजी को पिछले दरवाजे से अंदर ले आये। जब एक मित्र ने आंगतुक के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि ये हमारा पुराना घरेलू नौकर है और गाँव से आ रहा है। उसके पिता ने यह सुन लिया। वे सबके सामने गुस्से में बोले : मैं कौन हूँ, यह इसकी माँ से पूछ लो। इतना कहकर वे अपना सामान उठाकर बिना पौत्र को देखे वापस चले गये। इस घटना का संदेश है कि अच्छी शिक्षा वही है, जो संस्कारों को जीवित और जाग्रत रखे। ऐसी उच्च शिक्षा का क्या लाभ, जिससे व्यक्ति अपने धर्म, संस्कृति और परिवार से ही कट जाये।
क्षमा से दिल जीतो
संघ कार्य के लिए कई बार ऐसे स्थानों पर जाना होता है, जहाँ लोग संघ को नहीं जानते। कई बार वहाँ के लोग विरोधियों द्वारा किये गये दुष्प्रचार से ही अधिक प्रभावित होते हैं। अत: वे कार्यकर्ताओं को भला-बुरा भी कहते हैं। श्री गुरुजी का विचार था कि इन विरोधियों के प्रति भी प्रेमभाव रखते हुए ऐसे अपमान को चुपचाप सह लेना चाहिए। वे ईसामसीह का उदाहरण देते थे। जब उनके विरोधियों ने उन्हें वधस्तम्भ (क्र1स) पर चढ़ाया, तब भी उन्होंने प्रार्थना की - हे प्रभु, इन्हें क्षमा करना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं ?
एक व्यक्ति पर निर्भरता ठीक नहीं
प्राय: अनेक संस्थाएं, संगठन तथा कभी-कभी तो देश भी एक व्यक्ति के नेतृत्व पर इतने निर्भर हो जाते हैं कि उसके अभाव में लोग अपनी हिम्मत ही छोड़ बैठते हैं। सन 1761 में पानीपत के मैदान में विशाल युध्द हुआ। अहमदशाह अब्दाली विदेशी हमलावर था, दूसरी ओर हिन्दू सेना का नेतृत्व सदाशिवराव पेशवा हाथी पर बैठकर कर रहे थे। जब युध्द पूरे यौवन पर था, तो अचानक पेशवा हाथी से उतरकर घोड़े पर सवार हो गये और प्रत्यक्ष युध्द करने लगे। जैसे ही सैनिकों ने देखा कि पेशवा का हाथी तो है; लेकिन उस पर सेनापति दिखायी नहीं दे रहे, उनका मनोबल टूट गया। उनमें भगदड़ मच गयी और जीतता हुआ युध्द हिन्दू सेना हार गयी। इस युध्द ने भारत के इतिहास की धारा ही बदल दी। इसके विपरीत शिवाजी महाराज ने जब स्वराज्य की स्थापना की, तो देश के सर्वसामान्य व्यक्तियों में देशप्रेम की भावना और नेतृत्वक्षमता उत्पन्न की। इसका परिणाम बहुत अच्छा रहा। शिवाजी के देहांत के बाद औरंगजेब स्वयं एक विशाल सेना लेकर हिन्दू राज्य को कुचलने के लिए दक्षिण में आया। उसने शिवाजी के बड़े पुत्र संभाजी को मरवा दिया और दूसरे पुत्र राजाराम को जिंजी के किले में घेर लिया। सम्पूर्ण राज्य और सेना नेतृत्व विहीन हो गयी। लेकिन इसके बाद भी जनता ने हिम्मत नहीं हारी। औरंगजेब की विशाल मुसलमान सेना बीस साल तक संघर्ष करती रही; पर वह स्वराज्य को कुचल नहीं सकी। एक बार तो हिन्दू सैनिक औरंगजेब की शाही छावनी में घुस गये और उसके निजी तम्बू का सोने से बना कलश काटकर ले गये। औरंगजेब इससे इतना निराश और हताश हुआ कि वह दक्षिण में ही मर गया। यह शिवाजी की बुध्दिमत्ता ही थी कि उन्होंने व्यक्तिगत नेतृत्व के बदले सामूहिक नेतृत्व विकसित किया। उसी का यह सुपरिणाम था।

व्यापार का आधार सच
आजकल चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। लोगों की यह धारणा बन गयी है कि ईमानदारी से व्यापार नहीं हो सकता। श्री गुरुजी के विचार में ईमानदारी से काम करने पर प्रारम्भ में कुछ समय कठिनाई होती है; पर फिर सदा सफलता ही मिलती है। श्री गुरुजी नागपुर के एक व्यापारी का उदाहरण देते थे। उसकी दुकान पर दिन भर भीड़ लगी रहती थी। पूछने पर उसने बताया कि वह अपनी दुकान पर सदा साफ माल बेचता है और उनका मूल्य भी समुचित रखता है। ग्राहक चाहे छोटा बच्चा हो या बड़ा आदमी, दाम और माल में कोई फर्क नहीं होता। इस कारण शुरू में उसे अनेक परेशानियां झेलनी पड़ीं। घर वालों तथा अन्य व्यापारियों ने भी हतोत्साहित किया; पर उसने अपना ईमानदारी का व्यवहार नहीं छोड़ा। परिणाम यह हुआ कि अब उसकी दुकान पर पूरे बाजार से अधिक भीड़ रहती है। लोग उससे उधार सामान भी ले जाते हैं; पर किसी ने उसका पैसा नहीं मारा। नि:संदेह सच की शक्ति बहुत है; पर उसे अपना प्रभाव जमाने में समय लगता है। लेकिन एक बार उसकी सुगंध फैली, तो वह सदा के लिए लाभ देती है।