दूसरे का अन्न
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
सामाजिक कार्य करते समय भी प्राय: बहुतों के मन में अपने-पराये का विचार रहता है। इस संबंध में सही दृष्टिकोण समझाने के लिए श्री गुरुजी ने एक बार यह घटना सुनायी। एक बार श्री गुरुजी किसी स्थान पर एक प्रतिष्ठित सज्जन से मिलने गये, उनके साथ कुछ स्थानीय कार्यकर्ता भी थे। चलते समय एक कार्यकर्ता ने उन सज्जन से कहा - कल श्री गुरुजी मेरे घर भोजन करने आयेंगे, मेरी प्रार्थना है कि आप भी पधारें। वे सज्जन बोले - आपका निमन्त्रण मेरे लिए प्रसन्नता की बात है; पर मेरा नियम है कि मैं दूसरे का अन्न नहीं खाता। इसलिए मैं नहीं आ सकूँगा। यह सुनकर श्री गुरुजी ने कहा - दूसरे का अन्न न खाने का नियम मेरा भी है। यह सुनकर सब चौंक गये। इस पर श्री गुरुजी ने समझाया - मैं कल जिनके घर भोजन के लिए जाने वाला हूँ, वे हिन्दू हैं और संघ के स्वयंसेवक भी। फिर वे पराये कैसे हो गये? और जब वे पराये नहीं हैं, तो उनके घर का अन्न मेरे लिए पराया कैसे हो गया ? बात सबकी समझ में आ गयी। हिन्दू समाज का एक-एक व्यक्ति अपने सगे भाई जैसा है। यह भाव मन में रहने पर ही हम समाज का कार्य करने में सफल हो पायेंगे।
मनोबल का महत्त्व
कई लोग शरीर से तो बहुत बलशाली होते हैं; पर मनोबल न होने के कारण वे प्राय: कुछ कर नहीं पाते। श्री गुरुजी काशी में पढ़ते समय एक महीने के विशेष अध्ययन के लिए प्रयाग गये थे। इस बारे में उस समय का एक अनुभव वे सुनाते थे। प्रयाग विश्वविद्यालय में उस समय एक पहलवान छात्र भी पढ़ रहा था। उसने कुश्ती में अनेक पदक पाये थे। वहीं एक दुबला-पतला, पर बहुत चुस्त व फुर्तीला बंगाली युवक भी था। वह प्राय: शांत भाव से अपने अध्ययन में लगा रहता था। एक बार उन दोनों में किसी बात पर झगड़ा हो गया। अपने स्वभाव के अनुरूप पहले तो वह बंगाली युवक शांत ही रहा; पर जब बात बहुत आगे बढ़ गयी, तो उससे नहीं रहा गया। उसने पहलवान के मुँह पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। केवल इतने पर ही वह नहीं रुका। उसने पहलवान पर घूँसों की बरसात भी कर दी। पहलवान युवक भौचक रह गया। उसके पास शरीर-बल तो था; पर मनोबल नहीं। बंगाली युवक ने उसे धक्का देकर नीचे गिरा दिया और उसके सीने पर चढ़ बैठा। पहलवान के पाँव उखड़ गये, उसने जैसे-तैसे स्वयं को छुड़ाया और मैदान छोड़कर भाग गया। स्पष्ट है कि शरीर-बल के साथ मनोबल होना भी बहुत आवश्यक है। बिना मनोबल के शरीर-बल का कोई महत्त्व नहीं है।
नकल से सफलता नहीं
महापुरुषों का जीवन पढ़कर उनके गुण अपने जीवन में उतारना तो ठीक है; पर यदि उनके रंग-रूप की नकल करने का प्रयास किया, तो प्राय: हँसी ही बनती है। एक बार किसी कार्यकर्ता ने शिवाजी के विश्वस्त साथी तानाजी मालसुरे की जीवनी पढ़ी। वह उससे बहुत प्रभावित हुआ। उसने विचार किया जिस गाँव में मुझे नयी शाखा स्थापित करनी है, यदि वहाँ मैं तानाजी जैसे कपड़े पहनकर जाऊँ, तो लोग शीघ्र आकर्षित होंगे और मेरा कार्य सरल हो जाएगा। उसने वहाँ खबर भिजवा दी कि कल शाम को मैं तानाजी बनकर गाँव में आऊँगा। अगले दिन उसने किराये पर एक घोड़ा, सैनिक के कपड़े, पगड़ी, तलवार आदि ली और सजधज कर घोड़े पर बैठकर गाँव की ओर चल दिया। गाँव दूर था, अत: वहाँ पहुँचने में तीन-चार घंटे लग गये। गाँव में खबर थी ही, लोग चौपाल पर एकत्र थे। सबने ताली बजाकर उसका स्वागत किया। गाँव के मुखिया ने उनके गले में माला डालकर कहा - आइये महाराज उतरिये, मेरे घर चलिये। पर वह नकली 'तानाजी' घोड़े से उतरे कैसे ? उसे घोड़े पर बैठने का अभ्यास तो था नहीं। अत: चार घंटे की सवारी से उसकी टाँगे जाम हो गयीं। उन्होंने सीधी होने से मना कर दिया। मुखिया जी समझ गये। उन्होंने कुछ लोगों की सहायता से उन्हें घोड़े से उतारा। वे जिस स्थिति में घोड़े पर बैठे थे, उसी स्थिति में उतर कर खड़े हो गये। चार कदम चलना भी उनके लिए संभव नहीं था। मुखिया जी ने कई दिन तक उनकी टाँगों की सिकाई और मालिश करवायी, तब वे सामान्य स्थिति में आये। स्पष्ट है कि समाज के काम में महत्त्व मन की भावना का है, नकल का नहीं।
लगातार काम करने से लाभ
कुछ लोग स्थिर होकर किसी काम को नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी सफलता भी नहीं मिलती। जबकि सफलता के लिए लगातार काम करना जरूरी है। श्री गुरुजी अपने प्रवास के दौरान एक कार्यकर्ता के घर में ठहरे थे। उस घर में एक छात्र भी रहता था। परीक्षा का समय निकट था; पर उसने साल भर कुछ खास पढ़ाई नहीं की थी। उसने गुरुजी को देखकर सोचा कि ये दाढ़ी वाले सज्जन अवश्य कोई सिध्द संन्यासी होंगे। ये शायद कोई उपाय बता दें। वह समय निकालकर गुरुजी के पास आया और बोला - मुझे किसी काम में सफलता नहीं मिलती, क्या आप कोई उपाय बता सकते हैं ? गुरुजी ने मन की एकाग्रता के लिए आसन-प्राणायाम जैसी कुछ विधियाँ बतायीं। उसने पूछा - इन्हें कितने दिन तक करना होगा ? गुरुजी ने कहा - यदि लाभ हो तो फिर सदा ही करते रहो। इस पर उसका मुँह लटक गया। बोला - यह तो बहुत कठिन है। मैं किसी काम को लगातार नहीं कर सकता। श्री गुरुजी ने हँसकर कहा - तो फिर सफलता की आशा मत करो। सफलता के लिए लगातार काम करना जरूरी है।
श्रीकृष्ण का आत्मविश्वास
यदि मन में आत्मविश्वास हो, तो अधिकांश बाधाएँ काम प्रारम्भ करने से पूर्व ही दम तोड़ देती हैं। जब पांडवों ने अपना बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास सफलतापूर्वक पूरा कर लिया, तो उन्होंने कौरवों से अपना राज्य वापस माँगा; पर कौरवों ने उन्हें राज्य नहीं दिया। पांडवों ने अनेक तरह से उन्हें समझाने का प्रयास किया; पर वे नहीं माने। अंतत: युध्द करने का ही निश्चय हुआ। युध्द से पूर्व अंतिम प्रयास के रूप में पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण ने एक बार फिर कौरवों के पास जाने की इच्छा व्यक्त की। युधिष्ठिर के मन में भय जाग गया। वे बोले - हे कृष्ण ! आप तो हमारे सबसे बड़े हितैषी और मित्र हैं। आपके बल पर ही हम यह युध्द मोल ले रहे हैं। यदि दुर्योधान ने आपको ही बन्दी बना लिया या मार डाला, तो हमारा क्या होगा ? श्रीकृष्ण हँसकर बोले - यदि ऐसा हुआ, तो फिर तुम्हें युध्द करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। मैं अकेला ही उसके सारे भाइयों और सेना को पराजित कर दूँगा। श्री गुरुजी इस प्रसंग को सुनाकर बताते थे कि हमारे मन में भी ऐसा ही प्रबल आत्मविश्वास होना चाहिए।