श्रीगुरुजी का शिक्षा दर्शन
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
रणजीत सिंह
श्रीगुरुजी सन् 1931 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक के रूप में आये। उनकी भारतीयता और आत्मीयता ने उन्हें विद्यार्थी वर्ग में गुरुजी के नाम से प्रसिध्द कर दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ उनका सम्पर्क इसी समय आया, मानो वे एक दूजे के लिए बने हों। संघ के विस्तार के साथ-साथ उनका यही उपनाम दुनियाभर में लोकप्रिय हो गया। अपने जीवन के अन्त तक एक आदर्श शिक्षक (या गुरु) के रूप में उन्होंने संघ का कार्य किया और दिखलाया कि खेल-खेल में आत्मीयतापूर्ण वातावरण और आदर्श आचरण सामने रखकर सामान्य मनुष्य के तन,मन और आत्मा में निहित श्रेष्ठतम संभावनाओं को इस तरह विकसित किया जा सकता है कि वह राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति और मानवता के कल्याण का साधक-वाहन बन सके।
 
अपशकुन
भारतीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) ने बल देकर कहा था कि राष्ट्रों के भविष्य का निर्माण उसकी पाठशालाओं में ही होता है। परन्तु इस निर्माण का उत्तरदायित्व निष्ठावान शिक्षकों के आदर्श आचार-व्यवहार पर निर्भर है, यह कहने का साहस वह नहीं जुटा सका। डा. राधाकृष्णन ने जब शिक्षण कार्य छोड़कर राजकीय पद स्वीकार किया था तब आचार्य विनोबा भावे ने इस घटना को भारत के भविष्य के लिये अपशकुन माना था। उन्होंने यह भी याद दिलाया था कि स्वतंत्रता संग्राम के समय लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी तक दासता से मुक्ति मिलने के बाद स्वयं शिक्षक बन कर देश की सेवा करने की चर्चा किया करते थे। उन्हें तो ईश्वर ने इसका अवसर नहीं प्रदान किया, परन्तु श्री गुरुजी ने राष्ट्र-निर्माण के इस अवसर का उपयोग बड़े उत्साह के साथ अपनी अन्तिम श्वास तक किया।
 
धर्म-दण्ड का धारक गुरु
प्राचीन भारतीय व्यवस्था में गुरु धर्म-दण्ड का धारक होता था। राजसत्ता को उसके सामने झुकना पड़ता था। परन्तु पराधीनता के काल में राजसत्ता ने प्रमुखता और निरंकुशता प्राप्त कर ली। स्वाधीनता के बाद इस भयानक भूल को सुधारने की बात सोचने के बजाय राजनेता सत्ता-सुख का भोग करने में पड़ गये। शिक्षक की हैसियत साधारण सरकारी कर्मचारी या निजी संस्थान के नौकर से ऊपर न उठ सकी जबकि श्रीगुरुजी की अभिलाषा थी कि अध्यापक और अभिभावक मिलकर भावी भारत का निर्माण करने वाली शिक्षा नीति, पाठयक्रम, परीक्षा-पध्दति आदि का विकास अपनी आवश्यकताओं और परम्पराओं के अनुसार करें। ब्रिटिश साम्राज्य के द्वारा अपना नफा-नुकसान नाप कर बनायी गयी व्यवस्थायें जितनी जल्दी समाप्त हो जायें उतना ही अच्छा है।
 
अपना दायित्व
आज जब अभिभावक अपने बालक के भविष्य का विचार करते हैं तब उनके सामने कुछ लिख-पढ़कर, थोड़ी चतुराई-जानकारी इस तरह प्राप्त कर लेने का लक्ष्य होता है जिससे नौकरी मिल जाय। माता-पिता भी यह कहते नहीं अघाते कि वे अपने बच्चों से बहुत प्रेम करते हैं। परन्तु हमें सोचना चाहिए कि यदि यह प्रेम सच्चा है और हम बालक का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, तो क्या यह ''एक सुख-शान्ति सम्पन्न, वैभवशाली राष्ट्र और समता-ममता पूर्ण प्रबुध्द समाज'' बनाये बिना सम्भव है? यदि हमें ऐसे समाज की आवश्यकता है, तो उसे चलाने योग्य देशभक्त-चरित्रवान नागरिकों के निर्माण की आवश्यकता होगी। ऐसी मानव निर्माणकारी शिक्षा न तो कानून से सम्भव है न किताबों से। उसकी पूरी निश्चिन्तता तो हमारे अपने समझदार-जिम्मेदार-वफादार अध्यापक और अभिभावकों द्वारा अपना दायित्व समझने पर ही होगी।
 
एकात्म या अद्वैत की पहचान
आधुनिक विज्ञान और अनुसंधान की दिशा पूर्ण सत्य का आविष्कार करने की ओर है। भौतिक विज्ञान के विकास ने यह समझना संभव बना दिया है कि जगत् की रचना में जो विविधता दिखाई पड़ती है वह सिर्फ सतह तक ही सीमित है। अडिग हिमालय, अस्थिर वायु, निर्जीव पाषाण और जीवमान पशु-पक्षी सब की संरचना में जिन मूल कणों का उपयोग दिखाई देता है, वे सबके सब स्वयं अर्जित हैं, उल्लसित हैं, एक अनिर्वचनीय, अनवरत नृत्य में रत हैं। यह मूल कण ही एक-दूसरे के साथ मिलकर नये-नये रूपाकार ग्रहण करते हैं, गुण-धर्म की विशेषताएं, विविधताएँ सृजित करने में सक्षम हैं। हमारे पूर्वजों ने इसी एकात्मता या अद्वैत को पहचान कर उसके आधार पर एक परिपूर्ण मानव और सुव्यवस्थित समाज रचना के सिध्दान्तों की खोज की थी।
 
परिपूर्ण मानव बनने का आह्वान
श्रीगुरुजी समझाया करते थे कि ''सुख शान्तिपूर्ण समाज की जो धारणा करता है, उसकी सुव्यवस्था को बनाये रखता है .... सभी प्रकार के लोगों को ठीक से अपने-अपने कर्मों में लगाता हुआ सम्पूर्ण समाज के अभ्युदय के लिए .... व्यक्ति के श्रेष्ठ जीवन के लिए .... परस्पर पूरकता से कर्म करवाने की जिसमें क्षमता है, वही धर्म है।''
दीनदयाल विद्यालय के कार्यक्रम में उन्होंने यह आह्वान किया था कि ''आओ परिपूर्ण मानव बनो। चतुर्विध पुरुषार्थ ग्रहण करो। एक संतुलित, सुव्यवस्थित, व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन का निर्माण करो। तुम्हारे कर्म, तुम्हारा अर्थ, तुम्हारा काम, सब कुछ समाज की सुव्यवस्था, सुख सम्पन्नता का पोषण करने वाला हो।'' और यह कि, ''संसार को चार पुरुषार्थों के चिरन्तन सत्य का बोध कराने की हमारे अन्दर क्षमता आनी चाहिए। हम जगत् को अपने उदाहरण और आदर्श से इस सत्य का बोध करायें, क्योंकि जगत् के लिए यही कल्याणकारी है।''
 
मृग-मरीचिका
मनुष्य सुख-धर्मी है। उसकी गहरी से गहरी आकांक्षा सुख और समृध्दि की निरंतरता है। परन्तु सुख क्या है, इसकी सही समझ न होने के कारण, कोई इन्द्रियगत संवेदनाओं में, कोई धन-सम्पदाओं और कोई नाम-बड़ाई में उसी की तलाश करते हैं। परिणामस्वरूप सृष्टि में मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जिसका आचरण न तो अपने स्वयं के प्रति, न अन्य मनुष्यों के प्रति और न दुनिया की दूसरी मानवेतर इकाइयों के प्रति सुनिश्चित है जबकि पर्वत, पानी, बादल, पेड़, पशु-पक्षी सभी का परस्परता में आचरण सुनिश्चित है। जब सबके सब परस्परावलंबन की अपनी व्यवस्था में जीते हैं, तब मनुष्य भी अपनी व्यवस्था को सुनिश्चित क्यों नहीं कर पाता? क्यों कलह-क्लेश भोगता, सुख की मृग मरीचिका में इधर-उधर भागता है?
सच्ची शिक्षा के अभाव में वह जान ही नहीं पाता कि उसका शरीर और जीव (न) दोनों भिन्न तत्व हैं। हालाँकि हल-चल बन्द कर, शान्त भाव से थोड़ी देर बैठकर हर एक अपने भीतर इस सच्चाई की जाँच कर सकता है कि एक तो अपनी बचपन-जवानी आदि अवस्था, कद-काठी, स्वास्थ्य-दशा, देश-काल से बंधा हुआ है जबकि दूसरे के लिए न किसी प्रकार की कोई सीमा है, न कोई बचपन। अतएव सुख व दु:ख का कारण भी दोनों के लिए भिन्न-भिन्न होना चाहिए, परन्तु भ्रमवश मनुष्य एक पर दूसरे का आरोपण कर स्वयं दु:खी होता है और दूसरों के लिए कलह-क्लेश का कारण बन जाता है।
 
सच्ची शिक्षा
स्वयं सुखी-समृध्द और सृजनशील होना तथा औरों को वैसा ही होने में सहभागी होना इसी व्यवस्था का नाम सच्ची शिक्षा और धर्म है। परन्तु हमारे शैक्षिक प्रबन्ध कुछ प्रमाद, कुछ पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के कारण इसको समझने का अवसर नहीं देते। चार पुरुषार्थों को समझना, समयानुकूल उनका अभ्यास करना, भारत के भविष्य के लिए जितना जरूरी है, मानवता के कल्याण के लिए भी उतना ही आवश्यक है।
 
नयी पीढ़ी का पाथेय
शिक्षा के दो चरण हैं - अनुकरण और आविष्कार। एक के द्वारा विद्यार्थी सांस्कृतिक विरासत का अपना भाग प्राप्त करे और दूसरे के द्वारा ज्ञान राशि के कोष में वृध्दि में भागीदार बने। उससे यही अपेक्षा की जाती है। परन्तु परीक्षा पध्दति की जकड़ ऐसी कि वह भी आँख मूँदकर किया गया अनुकरण देश की नियति बन गया है। अंग्रेजों की भाषा, उनके खेल-कूद, उनके शौक तो हमने अपना लिये हैं परन्तु उनकी देशभक्ति, कर्त्तव्यनिष्ठा, परिश्रमशीलता की ओर हमारा ध्यान नहीं है। अपने देश का इतिहास भी लिखते समय उनके द्वारा प्रचारित निराधार दलीलों को बार-बार दोहराया जाता है। आर्यों का भारत में आगमन, आर्य-द्रविड़ संघर्ष, वनवासी बन्धुओं को आदिवासी बता कर, अविश्वास बढ़ाने वाली बातें अब भी पढ़ाई जा रही हैं। रामायण-महाभारत, संतों-साहित्यकारों, उद्योगों में समाहित ज्ञान-विज्ञान की परम्पराओं को जान-बूझकर ढांकने-मूंदने, नष्ट करने के प्रयास किये जा रहे हैं। समाज और शिक्षकों को स्वयं परिष्कार और आविष्कार का आत्मविश्वास बढ़ाना होगा, स्वावलम्बी बनना पड़ेगा। हमारे राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता, विश्व को उसकी विरासत, परिपूर्ण मानव बनने के लिए हमारे आदर्श, जिनके कारण भारत संसार का सिरमौर बन सका था, सभी कुछ, नयी पीढ़ी के पाथेय के रूप में प्राप्त कराना हमारा समाज के प्रति दायित्व है।
 
विविधता में एकता
श्रीगुरुजी के शब्दों में ''व्यक्ति के समान ही राष्ट्र का भी अपना पृथक् व्यक्तित्व होता है। भूमण्डल के सभी भागों में प्राप्त ... अलग-अलग विशिष्ट लक्षणों का विश्व की योजना में अपना स्थान होता है। .... विशिष्टताओं का नाश जागतिक सामंजस्य के नैसर्गिक सौन्दर्य को ही नष्ट कर देगा। .... विविधता में एकता भारतीय प्रतिभा की विशेषता है। अत: वह विश्व व्यवस्था, जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं, स्वायत्ता एवं स्वावलम्बी राष्ट्रों के संघ द्वारा विकसित होगी।'' और
''....मानव जाति को अपना अद्वितीय ज्ञान प्रदान करने की योग्यता सम्पादन हेतु संसार की एकता और कल्याण के लिए जीवित रहने, उद्योग करने के पहले हमें संसार के समक्ष स्वयं आत्मविश्वासी-सामर्थ्यशाली राष्ट्र के रूप में खड़ा होना पड़ेगा।'' .... महान कार्यों के लिए बहुत बड़े-बड़े साधकों की नहीं, अन्तर्निहित शक्ति को जगाने की आवश्यकता होती है .... क्रिया सिध्दि: सत्वे भवति महतां नोपकरणे। यही सत्व, यही मानव-मानव में निहित शक्ति जगाना शिक्षा का उद्देश्य है, अध्यापक-अभिभावक सबका उत्तरदायित्व है। यही ईश्वरीय, राष्ट्र की, मानवता की सच्ची सेवा है।''
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.