श्रीगुरुजी और आर्थिक संरचना
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
अपने राष्ट्र-समर्पित जीवन में श्रीगुरुजी ने समाज-जीवन के विविध पक्षों की हिन्दू जीवन-दर्शन पर आधारित श्रेष्ठतम सिध्दान्तों के आधार पर व्याख्या की है। 1947 में भारत के स्वाधीन होने के उपरान्त अपने देश में राष्ट्र की भावी आर्थिक संरचना को लेकर जबरदस्त विचार-मंथन हो रहा था। अत: उसका उल्लेख करते हुए श्रीगुरुजी ने स्पष्टतम शब्दों में यह कहा था कि आज सम्पूर्ण विश्व में पूँजीवाद और मार्क्सवादी समाजवाद की दो परस्पर-विरोधी आर्थिक संरचनायें विद्यमान हैं। किन्तु इनमें से किसी भी एक को अपनाने से पूर्व उनके उद्गम, स्वरूप तथा व्यावहारिक अनुभव का आकलन कर लेना परमावश्यक है।
 
उच्चादर्शों के विपरीत व्यवहार
इन दोनों में से लोकतन्त्र के उद्धोष पर आधारित पूँजीवाद की उत्पत्ति यूरोपीय देशों में व्याप्त निरंकुश राज्यसत्ता के विरुध्द एक जबरदस्त प्रतिक्रिया के रूप में हुई। 'स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता' उसके आधारभूत तत्व घोषित किए गए हैं। राजाओं के दैवी अधिकार के सिध्दान्त को अमान्य कर इसमें 'व्यक्ति स्वातन्त्र्य', 'व्यक्ति के अधिकारों की अनुल्लंघनीयता' और 'सभी के लिए समान अवसर' उपलब्ध कराने का अभिवचन दिया गया था। इसी कालखण्ड में यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति हो गई। बड़े परिमाण में प्रस्थापित इन उद्योगों अथवा कारखानों में लाखों व्यक्तियों को श्रमिक के रूप में आजीविका प्राप्त हुई। किन्तु सम्पत्ति और बुध्दि के धानी मुट्ठी-भर व्यक्तियों का 'समान अवसर' के नाम पर उद्योग-धन्धों पर एकाधिकार हो गया। श्रीगुरुजी के शब्दों में ''इस प्रकार 'व्यक्ति स्वातन्त्र्य' की ऊँची कल्पना का अर्थ रह गया कुछ श्रीमन्तों की स्वतन्त्रता, ताकि वे शेष सामान्य जनता का उपयोग अपनी स्वार्थ-सिध्दि के लिए कर, उसे दीन-हीन तथा दास बनाए रखें। उन कारखानों में मजदूरी करने वाले स्त्री, पुरुष और बालकों की भयंकर दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे अब पुरानों के स्थान पर नये अत्याचारियों के पैरों के नीचे दबे हुए कराह रहे थे।''
 
कम्युनिज्म का उदय
पूँजीवाद की इस नग्न क्रूरता के विरुध्द प्रतिक्रियास्वरूप 'कम्युनिज्म' का उदय हुआ। उसकी मान्यता है कि औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आर्थिक विषमता में कल्पनातीत वृध्दि होकर सम्पत्तिवान 'पूँजीपति' और अकिंचन 'सर्वहारा' नामक दो परस्पर-विरोधी वर्ग अस्तित्व में आयेंगे। उनके मध्य संघर्ष अवश्यंभावी होगा और उस संघर्ष में सर्वहारा या श्रमिक वर्ग को निर्णायक विजय प्राप्त होकर वह राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लेगा। फिर इस राजनीतिक सत्ता के द्वारा पूँजीपतियों की सम्पूर्ण चल-अचल सम्पत्ति बलात् छीन ली जाएगी। उस पर राज्य का एकाधिकार हो जाएगा तथा शासन-सत्ता श्रमिक वर्ग के हाथ में आ जाने से शोषण का अन्त हो जाएगा। कालान्तर में राज्य भी समाप्त हो जाएगा क्योंकि तब समाज में शोषण ही न होने से राज्य की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी।
 
भविष्यवाणी असत्य सिध्द हुई
किन्तु 'कम्युनिज्म' के जनक कार्ल मार्क्स की भविष्यवाणी पूर्णतया असत्य सिध्द हुई। सर्वहारा की क्रान्ति औद्योगिक देशों में न होकर उस दृष्टि से सर्वाधिक पिछड़े रूस और चीन में हुई। श्रीगुरुजी के शब्दों में ''इस प्रकार मानव-इतिहास के भौतिकवादी भाष्य के आधार पर कम्युनिज्म की ऐतिहासिक अनिवार्यता का दावा वास्तविकताओं की कठोर चट्टान पर चूर-चूर हो गया है।''
 
कम्युनिज्म का अवसान
लेकिन पूँजीवाद की भाँति ही कम्युनिज्म भी सामान्य जन का जीवन सुखी नहीं बना सका। रूस-चीन सहित सभी कम्युनिस्ट शासित देशों में श्रमिकों के अधिकार वहाँ के एकछत्र शासक कम्युनिस्ट नेताओं के बर्बर हाथों में केन्द्रित हो गए। सामूहिक नरसंहार, दास बन्दीगृह, कम्यून, बलात् श्रम, मस्तिष्क भार्जन (Brain-washing) तथा तानाशाही एकाधिपत्य के सभी अमानुषिक कारनामों ने व्यक्ति को दैन्य और दासता की इतनी निम्नतम अवस्था में धकेल दिया जितना कि निरंकुश राजतन्त्र और पूँजीवाद के निकृष्टतम कालखण्ड में भी नहीं हुआ था। दूसरे शब्दों में श्रमिकों को दिया गया यह अभिवचन कि 'मजदूरों! तुम्हें अपने बन्धान छोड़कर अन्य कुछ नहीं गँवाना' कठोरतम बन्धानों के अतिरिक्त सर्वस्व गँवा देने में प्रतिफलित हुआ है। कम्युनिज्म के अवसान का संभवत: यही कारण है।
 
दोनों संरचनायें प्रतिक्रियावादी
इन तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति स्वातन्त्र्य और व्यक्ति की समानता को अपना आधार घोषित करने वाला पूँजीवाद तथा समाज के शोषित-पीड़ित-दलित समाज का मसीहा बनने का दावा करने वाले मार्क्सवादी समाजवाद की दोनों ही संरचनायें प्रतिक्रियावादी हैं। एक का जन्म निरंकुश राज्य सत्ता द्वारा होने वाले अत्याचारों तथा दूसरे का आविर्भाव पूँजीवादी आर्थिक संरचना के पाशविक शोषण के विरुध्द हुई प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ है। इसीलिए अपनी-अपनी विफलताओं के बाद इन दोनों संरचनाओं को क्रमश: व्यक्तिवाद से समूहवाद और समूहवाद से व्यक्तिवाद की ओर चलने को बाध्य होना पड़ा है।
 
देवत्व की उपेक्षा
श्रीगुरुजी का स्पष्ट अभिमत था कि इस परिवर्तन के बावजूद इससे समस्या का समाधान नहीं हो सकेगा। इसका कारण यह है कि पूँजीवाद और माक्र्सवादी समाजवाद संबंधी दोनों ही आर्थिक संरचनाओं के दार्शनिक आधार में व्यक्ति को मात्र एक भौतिक अथवा आर्थिक प्राणी माना गया है। उसकी स्थिति किसी भी दृष्टि से एक पशु से अधिक उच्चतर नहीं है। यही कारण है कि इन दोनों ही संरचनाओं में व्यक्ति के अन्दर निवास करने वाले आत्मा और उसके देवत्व का लेशमात्र भी विचार न करके उनकी पूर्णरूपेण अवज्ञा की गई है। यही कारण है कि दोनों संरचनाओं में विकेन्द्रीकरण का उच्च स्वर से उद्धोष करने के बावजूद उनका व्यावहारिक स्वरूप निकृष्टतम केन्द्रीयकृत संरचना अथवा व्यवस्था के रूप में प्रतिफलित हुआ है। पूँजीवाद में यह केन्द्रीकरण अपने घोर निहित स्वार्थ में आकण्ठ डूबे मुट्ठीभर पूँजीपतियों के हाथ में होता है तो कम्युनिज्म में वह राज्य सत्ता पर काबिज कम्युनिस्ट पार्टी के चन्द वरिष्ठतम पदाधिकारी होते हैं। जन-सामान्य के हित संरक्षण, हित संवर्ध्दन की चिन्ता दोनों संरचनाओं में से किसी एक में भी नहीं होती।
 
विफलता
श्री गुरुजी की असंदिग्धा मान्यता थी कि कोई भी संरचना स्वाभाविक अथवा प्रकृतिजन्य असमानता को ऊपरी समानता के आधार पर दूर नहीं कर सकेगी। पश्चिमी देशों में उल्लेखनीय भौतिक प्रगति होने के बावजूद लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन न होकर कुछ एक ऐसे छोटे से वर्ग का शासन है जो राजनीति की कला के पूर्ण ज्ञाता हैं तथा सामान्य जन को अपने पक्ष में लाने में पारंगत हैं। इसी भाँति कम्युनिज्म भी अपनी घोषित अवधारणाओं में पूर्णरूपेण विफल रह कर सामाजिक एकता और समरसता प्रस्थापित करने से कोई सरोकार नहीं रख सका है।
 
राजनीतिक और आर्थिक शक्ति की पृथकता
श्रीगुरुजी का कहना था कि पश्चिमी जगत् की इन कथित भौतिक परिकल्पनाओं से सर्वथा भिन्न हमारे प्राचीन राष्ट्र की आर्थिक संरचना का अनूठा स्वरूप यह भा कि उसमें राज्यसत्ता में राजनीतिक और आर्थिक दोनों पहलुओं को अलग-अलग रखने की पूरी सावधानी बरती गयी थी। आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों का एक ही व्यक्ति अथवा वर्ग अथवा राज्यसत्ता के हाथों में केन्द्रित करने से समाज का पतन होना एक धृव सत्य है। पश्चिमी जगत् के विद्वान्, बुध्दिजीवी और शासकगण आज तक इस सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सके हैं। किन्तु भारत के मंत्रद्रष्टा मनीषियों ने इसे भली-भांति हृदयंगम कर रखा था। अत: उन्होंने ऐसी आर्थिक संरचना करने का सुझाव दिया जिसमें व्यक्ति की प्रेरणा भी बनी रहे और साथ ही सम्पत्ति का विकेन्द्रीकरण भी पर्याप्त मात्रा में होता रहे। महात्मा गांधी ने इस सनातन राष्ट्र के जीवन-दर्शन तथा परम्पराओं के आधार पर आर्थिक शक्ति के न्यायसंगत एवं समुचित विकेन्द्रीकरण हेतु 'न्यास भावना' (Trusteeship) की अवधारणा का प्रतिपादन किया है। इस संरचना में मानव समाज द्वारा अधिकाधिक उत्पादन करने की क्षमता की प्रेरणा पंगु नहीं होती क्योंकि इसमें तो व्यक्ति-व्यक्ति से अधिकाधिक उत्पादन करने का आह्वान किया गया है। किन्तु इसके साथ ही यह व्यवस्था भी की गई है कि व्यक्तियों को स्वयं को उस उत्पादित सम्पत्ति का स्वामी न समझकर न्यासी समझना चाहिए तथा उक्त अर्जित सम्पत्ति का समुचित उपयोग समाज-हित में किया जाना चाहिए।
 
व्यक्ति-निर्माण की योजना
प्राचीन हिन्दू जीवन-दर्शन ने इस सिध्दान्त अथवा संरचना को व्यावहारिक स्वरूप देने हेतु व्यक्ति-निर्माण पर अत्यधिक बल दिया है। हमारे मन्त्रद्रष्टा मनीषियों ने व्यक्ति को मात्र 'भौतिक अथवा आर्थिक जीवन मानकर यह घोषणा की है कि हम सभी में एक ही समान सजीव आत्मा विद्यमान है, जो हम सभी को एक आन्तरिक और समान सूत्र में आबध्द करता है। यह आत्म तत्व व्यक्ति-व्यक्ति को सदाचरण के लिए प्रेरित करता है। इसी को हमारे मनीषियों ने 'धर्म' की संज्ञा प्रदान की है क्योंकि धर्म व्यक्ति-व्यक्ति को संयुक्त करने वाली आन्तरिक भावनाओं को जाग्रत करता है, स्वार्थपरता को संयमित करता है तथा सम्पत्ति के संचय और उपभोग की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक सीमा में मर्यादित करने का प्रबल भाव उत्पन्न करता है। व्यक्ति-व्यक्ति में सहकार्य और सामंजस्य की भावना को बलवती बनाता है तथा स्वार्थपरता एवं अपसंचय से उन्हें परावृत्त् करता है।
 
धर्म का सर्वकल्याणकारी स्वरूप
'धर्म' के इस सर्वकल्याणकारी स्वरूप को हिन्दू दृष्टि की प्रतिभा-सम्पन्नता बताते हुए श्रीगुरुजी कहते हैं कि धर्म व्यक्ति-व्यक्ति को आनन्द के सच्चे और वास्तविक स्वरूप के विषय में शिक्षित और संस्कारित करता है। उनके समक्ष मात्र भौतिक विलास का ही लक्ष्य नहीं रखा जाता क्योंकि उससे व्यक्ति को शाश्वत आत्मिक सुख की प्राप्ति नहीं होती। धर्म व्यक्तियों को भौतिक आकर्षणों से ऊपर उठाकर उनकी अपनी आत्मिक गहराई को जाग्रत करता है, उसमें उन्हें निमज्जित करता है तथा निस्सीम और शाश्वत आनन्द सिंधु का अन्वेषण करता है। फलत: व्यक्तियों को इस सत्य की अनुभूति होने लगती है कि उनके चारों ओर विद्यमान समस्त जन-समाज उसी परमात्मा का अभिव्यक्त रूप है और उनके द्वारा व्यक्ति-व्यक्ति की श्रम-साधना के फलों का उपयोग उनके निजी आनन्द के ही समकक्ष है।
धर्माधारित यह जीवन-दृष्टि सहकार्य, सन्तुलन और सामंजस्य को प्रतिफलित करती हुई समाज में समरसता उत्पन्न करती है। व्यक्तियों को अपने परिवार की आवश्यकताओं और दायित्वों को पूर्ण करने हेतु सम्पत्ति रखने का अधिकार प्राप्त होता है, किन्तु वह अमर्यादित नहीं होता।
 
नीतिशास्त्र की अवधारणा
हिन्दू जीवन-दर्शन पर आधारित इस आर्थिक संरचना के विषय में श्रीगुरुजी का कहना था कि इस राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में केवल आर्थिक पक्ष का ही विचार नहीं किया गया है। हमारे मनीषियों ने अर्थशास्त्र को नीति-शास्त्र कहकर सम्बोधित किया है। आज यह नीति केवल राजनीति और वह भी 'कुटिल' बनकर रह गई है। परन्तु हिन्दू जीवन-दर्शन की पुरातन मान्यता में अर्थ व राजनीति दोनों एक ही शब्द में समाहित हैं।
 
सामाजिक संस्कार
इस आर्थिक संरचना को साकार एवं सफल बनाने हेतु श्रीगुरुजी ने स्पष्ट शब्दों में उद्धोषित किया था कि ''इसके लिए हमें समाज को उचित जीवन-दर्शन से अनुप्राणित करना होगा। लोगों में यह क्षमता उत्पन्न करनी होगी कि आत्मकेन्द्रित प्रवृत्तियों पर वे अंकुश लगा सकें और स्वबान्धवों के सुख-दु:ख से एकाकार हो सकें। इसके लिए जाग्रत करना होगा - आत्मानुशासन। केवल उसी से समरसतापूर्ण समायोजन सम्भव है। राष्ट्र-वैभव के सर्वतोमुखी विकास हेतु सहकारी प्रयास की अभिप्रेरणा भी उद्दीप्त करनी होगी। इस प्रकार ऐसी सामाजिक संरचना खड़ी हो जाए जिसमें व्यक्तियों को जीवन के सर्वोच्च ध्येय के सम्बन्ध में सम्यक् दृष्टि प्राप्त हो, समस्त समाज के प्रति प्रेम और आत्मीयता की भावना झलकती हो तथा आत्मानुरूप होने का भाव विद्यमान हो।''
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.