स्वयं से प्रारम्भ करें
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
अपने क्षेत्र में संघ या कोई सामाजिक कार्य प्रारम्भ करने के लिए प्राय: हम दूसरों का मुँह ताकते रहते हैं। पर जब तक हम स्वयं संकल्प लेकर कार्य प्रारम्भ नहीं करते, तब तक सफलता संभव नहीं है। इसे समझाने के लिए श्री गुरुजी एक कथा सुनाते थे। एक किसान के खेत में एक चिड़िया ने अपना घोंसला बनाकर उसमें अंडे दिये। कुछ समय बाद उनमें से बच्चे निकल आये। एक दिन जब चिड़िया दाना-पानी लेकर वापस आयी, तो बच्चे बहुत डरे हुए थे। माँ को देखकर वे बोले - माँ, अब हमें शीघ्र ही यहाँ से चल देना चाहिए। आज इस खेत का मालिक किसान आया था। वह कह रहा था कि मेरी फसल पक गयी है। कल मैं गाँव वालों को लाकर फसल कटवाना प्रारम्भ करूँगा। माँ ने बच्चों को सांत्वना देते हुए कहा - घबराओ नहीं, अभी फसल नहीं कटेगी। दो दिन बाद शाम को बच्चे फिर सहमे हुए थे। माँ के आते ही बोले - आज तो वह किसान बहुत नाराज हो रहा था। कह रहा था कि गाँव वाले मेरी बात नहीं मानते। कल मैं अपने पड़ोसियों को लाकर फसल कटवाऊँगा। चिड़िया ने फिर बच्चों को कहा - धैर्य रखो, अभी फसल नहीं कटेगी। तीन-चार दिन बाद फिर चिड़िया जब बच्चों के लिए दाना लेकर लौटी, तो बच्चे डर के मारे काँप रहे थे। आते ही बोले - माँ, अब तो हमें चल ही देना चाहिए। आज तो वह किसान पड़ोसियों को भी गाली दे रहा था। कह रहा था कि मेरे पड़ोसी बहुत खराब हैं। समय पर काम नहीं आते। ऐसे तो मेरी फसल बर्बाद हो जाएगी। कल मैं अपने भाइयों से फसल कटवाने को कहूँगा। चिड़िया ने थोड़ी चिन्ता तो दिखायी; पर कहा - शांत रहो, अभी फसल नहीं कटेगी। ऐसे ही दो दिन और बीत गये। एक शाम बच्चों ने फिर माँ को बताया - आज तो किसान की ऑंखें गुस्से में लाल हो रही थीं। वह अपने भाइयों को भी भली-बुरी सुना रहा था। वह कह रहा था कि कल चाहे कोई आये या नहीं; पर मैं स्वयं आकर फसल काटूँगा। यह सुनकर चिड़िया गंभीर हो गयी। उसने बच्चों से कहा - चलो अब यहाँ से चलने की तैयारी करो। चूँकि अब किसान ने स्वयं फसल काटने का निश्चय कर लिया है। इसलिए कल फसल निश्चित ही कट जाएगी। स्पष्ट है कि जब तक हम किसी काम को स्वयं हाथ नहीं लगाएंगे, तब तक अन्य कोई भी सहयोग करने नहीं आयेगा।
आत्मविश्वास आवश्यक
किसी भी कार्य को करते समय यदि मन में प्रबल इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास हुआ, तो कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो जाता है। जीवन में सदा काम आने वाले इस सूत्र को समझाने के लिए श्री गुरुजी जैन साहित्य में उल्लिखित एक कथा सुनाते थे।
 
एक बार श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकि जंगल में घूमते-घूमते भटक गये। रात हो गयी; पर घर वापस जाने का रास्ता नहीं मिला। हारकर उन्होंने वन में ही एक बड़े पेड़ के नीचे रात बिताने का निर्णय किया। जंगल काफी भयावह था, अत: यह भी निर्णय हुआ कि तीनों में प्रत्येक क्रमश: दो घंटे जागकर पहरा देगा। सबसे पहले सात्यकि की बारी थी। वह जागकर पहरा देने लगा, जबकि श्रीकृष्ण और बलराम सो गये। कुछ समय बीतने पर पेड़ से एक ब्रह्मराक्षस कूद कर सामने आ गया। उसने सात्यकि को डराकर कहा कि वह कई दिन से भूखा है। आज सौभाग्य से तुम तीन हट्टे-कट्टे लोग यहाँ आ गये हो, अब वह तीनों को खायेगा। सात्यकि को क्रोध आ गया। उसने कहा कि हमें खाने से पहले तुम्हें मुझसे युध्द करना होगा। राक्षस तैयार हो गया। दोनों में युध्द होने लगा। सात्यकि ने देखा कि जैसे-जैसे समय बीत रहा है, उसकी शक्ति कम हो रही है। दूसरी ओर वह राक्षस शक्ति और आकार में बड़ा होता जा रहा है। लड़ते-लड़ते दो घंटे बीत गये। अब जागने की बारी बलराम की थी। सात्यकि ने बलराम को जगाया और स्वयं सो गया। थोड़ी देर ही बीती थी कि वह राक्षस बलराम के सामने भी आ गया और फिर तीनों को खाने की बात कहने लगा। बलराम भला कहाँ कमजोर पड़ने वाले थे, उन्होंने भी राक्षस से युध्द प्रारम्भ कर दिया। बलराम को लड़ते-लड़ते दो घंटे बीतने लगे। वे थक गये; पर राक्षस की शक्ति कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही थी। हारकर उन्होंने श्रीकृष्ण को जगाया और स्वयं सो गये। अब राक्षस श्रीकृष्ण के सामने आकर भूख मिटाने की बात करने लगा। परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण से उसकी कुश्ती चालू हो गयी। पर श्रीकृष्ण ने लड़ने की एक नयी विधि निकाली। उन्होंने इस युध्द को एक खेल बना लिया। वे लड़ते जाते, राक्षस को मारते जाते और स्वयं हँसते भी जाते। राक्षस इस हँसी से परेशान हो गया। वह श्रीकृष्ण पर आघात करता; पर वे वार बचाकर जोर से हँस पड़ते। मौका देखकर श्रीकृष्ण उसे घूँसा मारते और फिर हँसते। राक्षस इस प्रकार के युध्द का अभ्यस्त नहीं था। अब वह थकने लगा। इतना ही नहीं, तो उसका आकार भी कम होने लगा। एक समय तो वह मच्छर जितना छोटा हो गया। यह देखकर श्रीकृष्ण ने उसे अपने ऍंगोछे में बाँधा लिया।
 
तब तक सुबह हो गयी। सात्यकि और बलराम उठ गये। दोनों ने रात में राक्षस से जो मार खायी थी, उसके कारण वे दर्द से कराह रहे थे। श्रीकृष्ण को हँसते देख उन्होंने राक्षस की चर्चा की। श्रीकृष्ण ने अपने अंगोछे में बँधे हुए राक्षस को सामने कर दिया। यह कथा सुनाकर श्री गुरुजी कहते थे कि किसी भी काम को करते समय संकट तो आते ही हैं। यदि बलराम और सात्यकि की तरह आत्मविश्वास न रहे, तो वे संकट हम पर हावी हो जाते हैं। लेकिन यदि श्रीकृष्ण की तरह हम हँसते हुए उनका सामना करें, तो संकट मच्छर की तरह छोटे होकर हमारे काबू में हो जाते हैं।
चरित्र का महत्त्व
किसी भी व्यक्ति में शरीर का बल तो आवश्यक है; पर उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण उसमें चरित्रबल अर्थात शील है। यदि यह न हो, तो अन्य सभी शक्तियाँ भी बेकार हो जाती हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रह्लाद की कथा आती है, जो इसका महत्त्व बताती है। राक्षसराज प्रह्लाद ने अपनी तपस्या एवं अच्छे कार्यों के बल पर देवताओं के राजा इन्द्र को गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन गया। इन्द्र परेशान होकर देवताओं के गुरु आचार्य वृहस्पति के पास गये और उन्हें अपनी समस्या बतायी। वृहस्पति ने कहा कि प्रह्लाद को ताकत के बल पर तो हराया नहीं जा सकता। इसके लिए कोई और उपाय करना पड़ेगा। वह यह है कि प्रह्लाद प्रतिदिन प्रात:काल दान देते हैं। उस समय वह किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाते। उनके इस गुण का उपयोग कर ही उन्हें पराजित किया जा सकता है। इन्द्र द्वारा जिज्ञासा करने पर आचार्य वृहस्पति ने आगे बताया कि प्रात:काल दान-पुण्य के इस समय में तुम एक भिक्षुक का रूप लेकर जाओ। जब तुम्हारा माँगने का क्रम आये, तो तुम उनसे उनका चरित्र माँग लेना। बस तुम्हारा काम हो जाएगा। इन्द्र ने ऐसा ही किया। जब उन्होंने प्रह्लाद से उनका शील माँगा, तो प्रह्लाद चौंक गये। उन्होंने पूछा - क्या मेरे शील से तुम्हारा काम बन जाएगा ? इन्द्र ने हाँ में सिर हिला दिया। प्रह्लाद ने अपने शील अर्थात् चरित्र को अपने शरीर से जाने को कह दिया। ऐसा कहते ही एक तेजस्वी आकृति प्रह्लाद के शरीर से निकली और भिक्षुक के शरीर में समा गयी। पूछने पर उसने कहा - मैं आपका चरित्र हूँ। आपके कहने पर ही आपको छोड़कर जा रहा हूँ। कुछ समय बाद प्रह्लाद के शरीर से पहले से भी अधिक तेजस्वी एक आकृति और निकली। प्रह्लाद के पूछने पर उसने बताया कि मैं आपका शौर्य हूँ। मैं सदा से शील वाले व्यक्ति के साथ ही रहता हूँ, चूँकि आपने शील को छोड़ दिया है, इसलिए अब मेरा भी यहाँ रहना संभव नहीं है। प्रह्लाद कुछ सोच ही रहे थे कि इतने में एक आकृति और उनके शरीर को छोड़कर जाने लगी। पूछने पर उसने स्वयं को वैभव बताया और कहा कि शील के बिना मेरा रहना संभव नहीं है। इसलिए मैं भी जा रहा हूँ। इसी प्रकार एक-एक कर प्रह्लाद के शरीर से अनेक ज्योतिपुंज निकलकर भिक्षुक के शरीर में समा गये। प्रह्लाद निढाल होकर धरती पर गिर गये। सबसे अंत में एक बहुत ही प्रकाशमान पुंज निकला। प्रह्लाद ने चौंककर उसकी ओर देखा, तो वह बोला - मैं आपकी राज्यश्री हूँ। चँकि अब आपके पास न शील है न शौर्य; न वैभव है न तप; न प्रतिष्ठा है न सम्पदा। इसलिए अब मेरे यहां रहने का भी कोई लाभ नहीं है। अत: मैं भी आपको छोड़ रही हूँ। इस प्रकार इन्द्र ने केवल शील लेकर ही प्रह्लाद का सब कुछ ले लिया। नि:संदेह चरित्रबल मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी है। चरित्र हो तो हम सब प्राप्त कर सकते हैं, जबकि चरित्र न होने पर हम प्राप्त वस्तुओं से भी हाथ धो बैठते हैं।
शक्ति का रहस्य
सीधेसादे लोगों की अज्ञानता का लाभ उठाकर कुछ धूर्त लोग प्राय: अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। एक मौलवी साहब किसी मजार पर बैठते थे। उन्होंने लोगों से पैसे ऐंठने का एक तरीका खोज निकाला था। मजार के सामने एक बड़ा पत्थर पड़ा था। भारी होने के कारण लोग उसे हिला नहीं पाते थे। जब आठ-दस लोग एकत्र हो जाते, तो मौलवी साहब उन्हें कहते कि वे मिलकर उस पत्थर को हिलाएँ। लोग प्रयास करते; पर वह पत्थर हिलता ही नहीं था। इस पर वह मौलवी सबसे कहता कि अब वे सब मजार की ओर मँह करके पत्थर को हिलाने का प्रयास करें। मौलवी साहब जोर से 'पीर साहब की फतह' का नारा लगाकर सबको इशारा करते। अब सबके जोर लगाने पर वह पत्थर हिल जाता। सब लोग समझते कि यह पीर साहब का ही चमत्कार है।
 
एक बार कुछ स्वयंसेवक उस स्थान से आये थे, उन्होंने श्री गुरुजी को उस पत्थर और पीर के चमत्कार के बारे में बताया। गुरुजी उन सबको लेकर बाहर आये। वहाँ मजार के सामने वाले पत्थर से भी बड़ा एक पत्थर रखा था। गुरुजी ने सबको एक दिशा में खड़ा किया। फिर सबने उच्च स्वर में 'बजरंग बली की जय' का नारा लगाकर जोर लगाया, तो वह पत्थर भी हिल गया।
 
अब श्री गुरुजी ने सबको समझाया कि पत्थर हिलने से पीर साहब का कोई संबंध नहीं है। जब सब मिलकर एक दिशा में ताकत लगाते हैं, तो पत्थर हिलेगा ही। अर्थात शक्ति पीर साहब में नहीं सामूहिक प्रयास में है। इसी प्रकार हम किसी कठिन कार्य को मिलकर करें, तो वह भी सरल हो जायेगा।
बुध्दि का चमत्कार
यदि व्यक्ति में त्वरित बुध्दि हो, तो वह आने वाले संकट को टाल सकता है। प्रसिध्द क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद का अंग्रेजी गुप्तचर पीछा कर रहे थे। वे उनसे बचने के लिए अपने एक मित्र के घर पर छिप गये। पर पुलिस को कहीं से उनके बारे में कुछ जानकारी मिल गयी और वह उनके घर पर आ धमकी। पुलिस ने उससे काफी पूछताछ की; पर वह मानने को तैयार ही नहीं था कि आजाद उनके घर पर छिपे हैं। पुलिस तलाशी लेने की बात करने लगी। आजाद घर में ही थे। यह देखकर मित्र की पत्नी ने अपनी बुध्दि का प्रयोगकर आजाद को संकट से बचा लिया। उस दिन मकर संक्रांति थी। मित्र की पत्नी ने जोर से आजाद को डाँटते हुए कहा - मूर्ख, बच्चों के साथ ही खेलता रहेगा क्या ? यह मिठाई का टोकरा उठा और मेरे साथ चल। आज त्योहार का दिन है। पूरे मोहल्ले में मिठाई बाँटनी है। आजाद ने सिर पर टोकरी उठायी और मित्र की पत्नी के साथ बाहर निकल गये। पुलिस वाले बहस में ही उलझे रहे। बाहर निकलने के बाद कैसा त्योहार और कैसी मिठाई ? आजाद गये, तो फिर वापस ही नहीं आये। इस प्रकार उस वीर महिला ने अपनी प्रत्युत्पन्नमति से आजाद एवं अपने परिवार को एक भारी संकट से बचा लिया।