इस्लामी आघातों का परिणाम
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
1961 के संघ शिक्षा वर्ग में भाषण करते हुए श्री गुरुजी प्रबोधन करते हैं:-
''अरब समाज पहले से ही आक्रामक स्वभाव का था। मुहम्मद पैगम्बर के जन्म से उनको एक नई प्रेरणा मिली। इस्लाम मत के प्रसार के लिए उन्होंने शस्त्र उठाये और उस बहाने से आजू-बाजू के प्रदेशों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। उनका पहला उत्साह इतना दुर्दमनीय था कि शस्त्र के बल पर यहूदियों को परास्त किया। भूमध्य सागर और अफ्रीका को पूरी तरह से अपने काबू में किया। शक्तिशाली रोमन साम्राज्य को भी नष्ट करके बगदाद में खलीफा की गद्दी स्थापित की, फिर पश्चिम यूरोप की तरफ अपना मोर्चा बढ़ाकर ग्रीस, रूस, स्पेन को जीता। तत्पश्चात् सुवर्णभूमि भारत की ओर अपनी कुदृष्टि डाली। सिंध-मार्ग से दाहिर उनके आक्रमण लौटाता रहा। परन्तु अंतर्कलह के कारण उसके सेनापति, यहाँ तक कि पुत्र भी विरोध में खडे हो गये। इसी कारण मुगलों को सफलता प्राप्त हो सकी थी।''
 
14 नवम्बर 1965, दिल्ली के लाल किला मैदान पर हुई सार्वजनिक सभा में श्री गुरुजी मार्गदर्शन करते हैं :-
हमारे देश में मुसलमान समाज रहता है। क्या हम लोग कहते हैं कि उसको निकाल दो? क्या हम कहते हैं कि उसके साथ द्वेष करो? विशुध्द हिन्दू परम्परा का अभिमान रखने वाले हम लोगों के अन्त:करण में इस प्रकार के अभद्र विचार कैसे आ सकते है? अगर वे लोग भी आ जाएँगे तो प्रेमपूर्वक आनंद से रहेंगे। शर्त इतनी है कि यह भाव लेकर चलें कि अपनी भारतमाता के कण-कण के लिए अगर प्राण-समर्पण करना पड़ा, तो भी अपने पुनीत कर्तव्य के नाते करेंगे और समग्र समाज के साथ एक-हृदय बनकर अपने समग्र जीवन का वैभव, गौरव और सुख-समृध्दि इत्यादि प्राप्त करने के लिए परस्पर सहयोगी के नाते जुटेंगे। दूसरी कोई शर्त नहीं। उपासना की पध्दति बदलने की शर्त नहीं। ऐसी शर्त हिन्दू नहीं रख सकता।
 
उनकी प्रेरणा क्या?
कश्मीर पर किए गए आक्रमण को यदि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें, तो पता चलेगा कि यह कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं है। यह तो एक हजार वर्ष से चलने वाले आक्रमण का एक अध्याय मात्र है। क्या देश का विभाजन भी उसी पुराने आक्रमण की ही एक कड़ी नहीं है? इस भारतभूमि से हिन्दुत्व का समूलोच्चाटन कर यहाँ इस्लाम की पताका फहराने का स्वप्न क्या विभाजन की माँग करने वाले नहीं देखते थे? कश्मीर भी उनको किस लिए चाहिए? क्या इसलिए कि कश्मीर की भूमि से उन्हें बड़ा प्यार है, आत्मीयता है? हिन्दू के अन्त:करण में कश्मीर के कण-कण के प्रति जो श्रध्दा है, आत्मीयता है, क्या उसका लेशमात्र भी उनके मन में है? उन्हें कश्मीर इसलिये नहीं चाहिए कि उसके बिना जीवन सूना लगता है। उन्हें कश्मीर इसलिए चाहिए कि बचे-खुचे भारत के उत्तरी सीमान्त पर अपना प्रभुत्व प्रस्थापित करके इस हिस्से को भी हरे झंडे के नीचे ला सकें। (-22 फरवरी 1950, इलाहाबाद रोटरी क्लब द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में)
 
(भेंटवार्ता :- 'न्यूयार्क टाइम्स' संवाददाता, लूकस, 13 मई 1966, हैदराबाद में -श्री गुरुजी समग्र, खण्ड 9,पृष्ठ 158)
 
''आप कहते हैं- 'मुसलमानों का अपना इतिहास'। इस देश से पृथक उनका इतिहास इस राष्ट्र के द्वारा गौरव के साथ नहीं देखा जा सकता। विशाल संख्या में हिन्दुओं को बलात्कार द्वारा इस्लाम स्वीकार करने को विवश किया गया था। मैं उनके विचार करने के गलत ढंग के कुछ उदाहरण देता हूँ। वे रुस्तम को आदरपूर्वक स्मरण करते हैं। जब उनसे इसका कारण पूछा जाता है, तो वे कहते हैं कि वह हमारा बलशाली पूर्वज था। किन्तु वह उनका पूर्वज नहीं था। वह साहसी था। वह तो मुसलमान भी नहीं था। वह जरथुस्त्र मतावलंबी था। उसका रक्त भारतीय मुसलमानों की धमनियों में नहीं बहता। उनकी धमनियों में तो भारतभूमि के महापुरुषों का रक्त प्रवाहित हो रहा है। वास्तव में मुसलमानों को भारतीय बलशाली महापुरुषों का अभिमान होना चाहिए। मैं यह नहीं कहना चाहता कि उन्हें हिंदू धर्म में वापस लाने का कार्य किसी दबाव के अन्तर्गत किया जाए। सर्वोत्तम रास्ता यही है कि जो लोग बलात्कार से किसी समय मुसलमान बनाये गये थे, वे अपने मात्रुधर्म में पुन: लौट आयें। किन्तु जिन्होंने इस्लाम का स्वीकार उस धर्म के अध्ययन के उपरान्त उसके प्रति रुचि के कारण किया है तथा जो यह अनुभव करते हैं कि इस्लाम मत उनके अनुकूल आता है अथवा इतने दीर्घकाल तक इस्लाम मत में रहने के कारण जिन्हें उससे लगाव हो गया है, वे मुसलमान ही रहें। इसका अर्थ यह नहीं कि वे अपनी आनुवंशिकता को ही खो बैठें, अपने पूर्वजों से ही सम्बन्ध विच्छेद कर लें। उन्हें अपने देशवासियों के साथ झगड़ा भी नहीं करना चाहिए। हम इस्लाम धर्म के विरुध्द नहीं है। हिन्दू अत्यंत उदार होता है। उसमें वैदिक अथवा अवैदिक सभी के लिए स्थान है। हम जिस बात के विरुध्द हैं, वह इस देश के मुसलमान की मनोवृत्ति है। यदि कोई तीसरी शक्ति न होती तो भी इस समस्या को बहुत अच्छी तरह सुलझा लेते। मुसलमान हिन्दू धर्म के अंतर्गत उसी प्रकार स्थान ले सकते हैं, जैसे अन्य मतों के लोग।''
(श्री गुरुजी समग्र खण्ड 9, पृष्ठ 158)
 
13 मई 1966, 'न्यूयार्क टाइम्स' के संवाददाता से ही वे आगे कहते हैं:-
सारी कठिनाई यह है कि हिंदू और मुसलमान दो विरोधी गुटों के रूप में देखे जाते हैं। पिछले 150 वर्षों में यह सिध्दान्त खड़ा किया गया है कि वे एक होकर साथ-साथ नहीं रह सकते। हमें उपर्युक्त अशुध्द विचार को छोड़ना होगा और इस शुध्द एवं सरल दृष्टिकोण को अपनाना होगा कि हम सब एक ही राज्य के नागरिक हैं। किसी को कोई विशेष सुविधायें प्राप्त नहीं होंगी। यदि विचार करने का यह दृष्टिकोण अपनाया गया; तो सब ठीक हो जायेगा।
 
6 अप्रैल 1970 को 'पांचजन्य' के संपादक श्री देवेन्द्र स्वरूप के साथ साक्षात्कार में श्री गुरुजी पूछते हैं-
 
मुसलमानों का धर्म-परिवर्तन करने की बात किसने कही, कब कही? कम से कम मुझे तो उसका पता नहीं। मैंने सदैव कहा है कि विश्व में हिन्दू ही एकमेव ऐसा समाज है जो सब प्रकार की उपासना पध्दतियों का सत्कार करता है और उनका सम्मान करने के लिए प्रस्तुत है। क्योंकि, हिन्दू की ऐसी मान्यता है और यह उसके सम्पूर्ण आध्यात्मिक चिन्तन का निष्कर्ष है कि भगवान तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं। जो मार्ग जिसे जँचता है वही उसके लिए अनुकूल और श्रेष्ठ भी है। अत: हिन्दू समाज ने अपने भीतर एवं बाहर उपासना करने की मनचाही पूर्ण स्वतन्त्रता सदैव दी, आगे भी देगा। केरल में ईसाई शरणार्थी के रूप में आये, वहाँ के हिन्दू राजा ने उन्हें शरण दी। बसने के लिए सब प्रकार की सुविधाएँ दीं, किंतु क्या उन पर धर्म-परिवर्तन की शर्त लगायी? क्या यह विचित्र बात नहीं कि भारतीय मुसलमान अरबी इतिहास के नामों को अपनायें। ईरान के ऐतिहासिक पुरुष रुस्तम और सोहराब को अपनाने में संकोच न करें। तुर्किस्तान के महापुरुषों के नाम पर अपने नाम रखें, किंतु अपने भारतीय पूर्वजों, जैसे राम, कृष्ण, चंद्रगुप्त और विक्रमादित्य के नामों के प्रति घृणा रखें। आखिर इंडोनेशिया भी तो एक बड़ा मुस्लिम देश है। किन्तु वहाँ के मुसलमानों ने अपनी ऐतिहासिक परम्परा, संस्कृति व भाषा से संबंध विच्छेद नहीं किया। वहाँ मुस्लिम होते हुए भी 'सुकर्ण' और 'रत्नादेवी' जैसे नाम हो सकते हैं। वहाँ की विमान-सेवा का नाम भगवान विष्णु का वाहन 'गरुड़' हो सकता है, तो क्या इससे वे मुसलमान नहीं रहे? मैं तो यहाँ तक सोचता हूँ कि यदि भारतीय मुसलमान हजरत मुहमद के उपदेशों को ही समझने का यत्न करें, तो न वे केवल उनके अच्छे अनुयायी बन सकेंगे, अपितु स्वयं को 'अच्छे राष्ट्रीय एवं श्रेष्ठ भारतीय भी बना सकेंगे।
 
'इलस्टेरटेड वीकली' के संपादक खुशवन्त सिंह से मुम्बई में 17 नवम्बर 1972 को हुई भेंटवार्ता में श्री गुरुजी स्वीकारते हैं:-
मुझे रंचमात्र भी संदेह नहीं है कि भारत और पाकिस्तान के प्रति मुसलमानों में जो दोहरी निष्ठा है, उसके लिए ऐतिहासिक कारण ही उत्तरदायी हैं और इस बारे में मुसलमान और हिन्दू समान रूप से दोषी हैं। विभाजन के बाद उन पर जो आपत्तियाँ आईं और उनमें असुरक्षा की जो भावना निर्माण हुई, वह भी इसका एक कारण है। फिर भी कुछ लोगों की गलती के लिए सम्पूर्ण समाज को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।
 
.. आपके सुझाव का क्रम बदलकर मैं चाहूँगा कि उनकी निष्ठाओं को प्रेम से जीतना ही मुसलमानों के प्रति एकमेव सही नीति है। जमात-ए-इस्लामी का एक प्रतिनिधि मण्डल मिलने आया था। मैंने उनसे कहा कि मुसलमानों को यह बात भूल जानी चाहिए कि उन्होंने भारत पर राज्य किया था। विदेशी मुस्लिम देशों को उन्हें अपना घर नहीं समझना चाहिए और भारतीयता के मुख्य प्रवाह में उन्हें सम्मिलित हो जाना चाहिए। उन्हें सब बातें समझानी होंगी। मुसलमान जो कुछ करते हैं, उससे कभी-कभी क्रोध आता है। किन्तु रक्त की प्रकृति में दुर्भाव दीर्घकाल तक नहीं रहा करता। समय में घावों के भरने की महान क्षमता है। मैं आशावादी हूँ और मुझे लगता है कि हिन्दुत्व और इस्लाम एक दूसरे के साथ रहना सीख लेंगे।