सच्ची देशभक्ती
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
किसी भी लोकतान्त्रिक देश में राजनीतिक दलों में परस्पर मतभेद होना स्वाभाविक ही है। पर यह मतभेद अपने देश तक ही सीमित रहें, तो अच्छा है। बात उस समय की है जब श्री नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे। एक बार वे विदेश गये, तो वहाँ कुछ भारतीयों ने उन्हें काले झंडे दिखाये और मुर्दाबाद के नारे लगाये। श्री गुरुजी को इस समाचार से बहुत कष्ट हुआ। यद्यपि वे नेहरू जी की नीतियों के घोर विरोधी थे; पर प्रधानमंत्री का देश से बाहर अपमान हो, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। उन्होंने इसी संदर्भ में चर्चिल का एक उदाहरण सुनाया। ब्रिटेन में उन दिनों चर्चिल प्रधानमंत्री नहीं थे। उनके दल की चुनाव में पराजय हो गयी, अत: वे विपक्ष के नेता बनाये गये। इसी नाते वह एक बार अमरीका गये। वहाँ पत्रकारों ने उनसे सरकार के बारे में प्रश्न किये। उनका विचार था कि चर्चिल सरकार के विरुध्द बोलेंगे; पर चर्चिल ने स्पष्ट कहा : अपने देश में भले ही मैं विरोधी दल का नेता हूँ; पर देश से बाहर मैं सरकार का समर्थक हूँ। इसलिए मैं अपनी सरकार के विरुध्द कुछ नहीं बोलूँगा। यह उदाहरण बताता है कि देशभक्ति का सही अर्थ क्या है ?
राष्ट्रीय कौन ?
भारत में राष्ट्रीय कौन है, कौन देशी है और कौन विदेशी; यह प्रश्न प्राय: अनेक बार उठ खड़ा होता है। इसके लिए श्री गुरुजी सियार और सिंह के बच्चों की यह रोचक कथा सुनाते थे।
 
एक बार एक सियार का बच्चा जंगल में घूमते समय अपनी माँ से बिछुड़ गया। शाम हुई तो भूख और डर के मारे वह रोने लगा। उसी समय वहाँ से एक शेरनी जा रही थी। रोते बच्चे को देख वह उसे अपनी गुफा में ले आयी। उसे दूध पिलाया और अपने बच्चों के साथ-साथ उसका लालन-पालन भी करने लगी। धीरे-धीरे वह सियार का बच्चा शेर के बच्चों से घुलमिल गया। वह भी उनके साथ दिन भर जंगल में घूमता, खेलता और रात में शेरनी का दूञ् पीकर सो जाता।
 
वह सियार का बच्चा शेर के बच्चों से आयु में बड़ा था। एक दिन जंगल में घूमते हुए उन्हें एक हाथी दिखायी दिया। शेर के बच्चे बहुत खुश हुए। वे बोले आज बहुत दिनों बाद मोटा-ताजा शिकार मिला है, आओ इसे मार डालें। यह देखकर सियार का बच्चा बोला - अरे, क्या करते हो ? देखते नहीं, यह हमसे शरीर में कितना बड़ा और बलवान है। यदि हमने इस पर हमला किया, तो यह हमें ही मार डालेगा। शेर के बच्चे नहीं माने, वे हाथी पर हमला करने की तैयारी करने लगे। यह देखकर सियार का बच्चा दौड़ता हुआ घर आया। उसने शेरनी को कहा - माँ, देखो मेरे छोटे भाई मेरी बात नहीं मानते। वे अपने से बहुत बड़े हाथी से लड़ रहे हैं। वह उन्हें मार डालेगा।
 
शेरनी ने हँसकर कहा - यह ठीक है कि तुम मेरा दूधा पीकर बड़े हुए हो; पर तुम हो तो सियार ही। तुम्हारे वंश में कोई हाथी से नहीं लड़ता; पर हमारे यहाँ तो यह सामान्य सी बात है। इसलिए अच्छा यही है कि अब तुम अपने घर चले जाओ। ऐसा न हो कि मेरे बच्चे हाथी को मारने के बाद तुम पर ही हमला न बोल दें। इस कथा का अभिप्राय यह है कि यदि कोई व्यक्ति बाहर से आकर हमारे देश में रहने लगे, तो केवल इतने मात्र से ही वह भारत का राष्ट्रीय नहीं हो जाता। राष्ट्रीयता तो एक परम्परा है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी मिलने वाले संस्कारों से दृढ़ होती है।
हिन्दू विचार और वेशभूषा
मनुष्य जिन विचारों और संस्कारों के बीच पलकर बड़ा होता है, वैसा ही उसका व्यवहार, खानपान और वेशभूषा भी हो जाती है। एक संन्यासी विदेश प्रवास पर गये। वहाँ एक व्यक्ति ने उनसे कहा कि आप हिन्दू लोग कैसी ढीली ढाली धोती पहनते हो ? यदि कहीं मारपीट हो गयी, तो न लड़ सकोगे और न भाग सकोगे। संन्यासी ने हँसकर कहा - हम भारतीय सोचते हैं कि दुनिया में सब लोग हमारे जैसे ही सज्जन और सभ्य हैं। इसलिए लड़ाई और मारपीट का विचार हमारे मन में नहीं आता। दूसरी ओर तुम हर समय इसके बारे में ही सोचते रहते हो। इसलिए वैसी ही तुम्हारी वेशभूषा है और हिंसक पशुओं जैसा खानपान।

प्रकृति, विकृति और संस्कृति
एक प्रसिध्द कहावत है कि अपनी रोटी खाना प्रकृति, दूसरे की रोटी खा लेना विकृति, तथा अपनी रोटी दूसरे को खिला देना संस्कृति है। इस संबंध में एक पुराना प्रसंग श्री गुरुजी सुनाते थे।
युधिष्ठिर ने एक बार राजसूय यज्ञ किया। यज्ञ के बाद दूर-दूर से आये विद्वानों को भरपूर दान देकर सम्मान सहित विदा किया गया। सब लोग यज्ञ की सफलता से बहुत प्रसन्न थे। एक दिन सभी परिवारजन बैठे थे कि एक नेवला वहाँ आया। उसे देखकर सब आश्चर्यचकित रह गये। उसके शरीर का आधा हिस्सा सुनहरा था, जबकि शेष हिस्सा सामान्य नेवले जैसा था। वह नेवला अचानक मनुष्यों जैसी भाषा में बोलने लगा। नेवला बोला - महाराज युधिष्ठिर, यह ठीक है कि आपने यज्ञ में बहुत दान दिया है। यज्ञ भी समुचित विधि-विधान से हुआ है। आपको बहुत पुण्य और यश भी मिला है। फिर भी आपके यज्ञ में वह बात नहीं है, जो उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ में थी। सब लोग हैरान हो गये। युधिष्ठिर बोले - तुम किस यज्ञ की बात कर रहे हो। कृपया हमें उसके बारे में कुछ बात बताओ। तुम्हारे शरीर का आधा भाग सुनहरा और शेष सामान्य नेवले जैसा क्यों है ? नेवला बोला - महाराज, मैं जहाँ से आ रहा हूँ, वहाँ भयानक अकाल पड़ा है। वहाँ एक निर्धन अध्यापक अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था। वे घर आये अतिथि का भगवान समझकर सत्कार करते थे। वर्षों से वे इस परम्परा को निभा रहे थे। लेकिन अकाल के कारण उन्हें प्राय: कई दिन तक भूखा रहना पड़ता था। एक दिन वह अध्यापक कहीं से थोड़ा आटा लाया। उसकी पुत्रवधू ने उससे पाँच रोटी बनायीं। एक रोटी भगवान को अर्पण कर उन्होंने एक-एक रोटी आपस में बाँट ली। वे खाना प्रारम्भ कर ही रहे थे कि अचानक द्वार पर एक भिक्षुक दिखायी दिया। उसके शरीर को देखकर ही लग रहा था कि कई दिनों से उसके पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। अध्यापक ने उसका सत्कार किया और अपनी रोटी उसे दे दी। पर उसकी भूख शांत नहीं हुई। अब अध्यापक की पत्नी ने अपने हिस्से की रोटी भी उसकी थाली में डाल दी। इसी प्रकार क्रमश: पुत्र और फिर पुत्रवधू ने भी अपनी अपनी रोटी उन अतिथि महोदय को दे दी। चारों रोटी खाकर वह तृप्त हो गया और आशीर्वाद देकर चला गया। नेवला बोला - महाराज, उस भिक्षुक के जाने के बाद मैं वहाँ आया, तो उस धरती पर गिरे कुछ अन्नकण मेरे शरीर से छू गये। बस उसी समय मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया। तब से मैं देश-विदेश में भटक रहा हूँ। जहाँ भी कोई बड़ा धार्मिक कार्यक्रम होता है, वहाँ जाता हूँ। आपके यज्ञ की भी मैंने बहुत प्रशंसा सुनी थी; पर यहाँ भी मेरा शेष शरीर सुनहरा नहीं हुआ। इसका अर्थ साफ है कि आपके इस यज्ञ का महत्त्व उस निर्धन अध्यापक के यज्ञ से कम है। यह कहानी हमें प्रकृति, विकृति और संस्कृति का अंतर स्पष्ट करते हुए बताती है कि भारतीय संस्कृति ही अपनी रोटी दूसरे को खिला देने की प्रेरणा देती है।
यह कैसी मुक्ति ?
कई बार लोग आपस के छोटे-छोटे मतभेदों में फँसकर इतने मूर्ख बन जाते हैं कि अपने भाई पर आने वाले संकट की भी अनदेखी कर जाते हैं। इसका दुष्परिणाम आगे चलकर उन्हें स्वयं भी भोगना पड़ता है। इसे समझाने के लिए श्री गुरुजी गुजरात के सोमनाथ मंदिर के विध्वंस का उदाहरण देते थे। सोमनाथ मंदिर की अतुल धन-सम्पत्ति के बारे में सुनकर महमूद गजनवी ने उस पर चढ़ाई करने की योजना बनायी। उसे पता था कि सोमनाथ पहुँचना आसान नहीं है। रास्ते में अनेक हिन्दू राज्य हैं, जिनकी सोमनाथ मंदिर के प्रति आस्था है। राजस्थान के निर्जन रेगिस्तान भी हैं, जिन्हें पार करना बहुत कठिन है। इस पर भी उसने अपना निश्चय नहीं त्यागा और सेना लेकर चल दिया। उसे यह पता था कि गुजरात राज्य के प्रति आसपास के राज्यों में कुछ नाराजगी है। उसने सभी राजाओं से कहा कि वह सोमनाथ को जीतकर उन्हें भी गुजरात शासन के साम्राज्यवादी पंजे से मुक्त करायेगा। राजाओं ने उसकी धूर्तता को न समझते हुए उसे सोमनाथ तक पहुँचने का सरल मार्ग बता दिया। पर सोमनाथ को जीतकर महमूद गजनवी ने क्या किया ? उसने आसपास के राजाओं को भी लूटा। वहाँ के मंदिर और तीर्थों को अपमानित किया और इस प्रकार गुजरात, सौराष्ट्र एवं राजस्थान को लम्बे समय तक एक विदेशी एवं विधार्मी साम्राज्य के पंजे के नीचे दबकर रहना पड़ा।