श्रेय किसको ?
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
प्राय: लोग काम के समय तो पीछे रहते हैं; पर श्रेय लेने के लिए सबसे आगे खड़े दिखायी देते हैं। श्री गुरुजी संघ के सरसंघचालक थे। सब लोग उन्हें संघ का सर्वेसर्वा मानते और कहते थे। पर उनके मन में ऐसा कोई अहंकार नहीं था। एक बार इस संबंध में उन्होंने यह कथा सुनायी। एक व्यक्ति अपने ऊँट को लेकर कहीं जा रहा था। कुछ दूर चलने के बाद उसने ऊँट के गले में बंधी रस्सी छोड़ दी, फिर भी ऊँट अपने मार्ग पर ठीक से चलता रहा। रस्सी को जमीन पर घिसटता देखकर एक चूहा आया और वह उस रस्सी को पकड़कर ऊँट के साथ-साथ चलने लगा। थोड़ी देर बाद चूहे ने अहंकार से ऊँट की ओर देखा और कहा - तुम अपने को बहुत शक्तिशाली समझते हो; पर देखो, इस समय मैं तुम्हें खींचकर ले जा रहा हूँ। यह सुनकर ऊँट हँसा और उसने अपनी गर्दन को जरा सा हिलाया। ऐसा करते ही चूहा दूर जा पड़ा। यह कथा सुनाकर श्री गुरुजी ने कहा - ऐसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक अपना यह विशाल संगठन है। इसकी रस्सी का एक छोर पकड़कर यदि मैं यह कहूँ कि मैं इसे चला रहा हूँ, तो यह मेरी नहीं, चूहे जैसी क्षुद्र बुध्दि वाले किसी व्यक्ति का कथन होगा। वस्तुत: संघ सब स्वयंसेवकों की सामूहिक शक्ति से चल रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसमें और अधिक बुध्दि और शक्ति लगायें। यही हम सबका कर्तव्य है।
शुध्द उच्चारण आवश्यक है
श्री गुरुजी कार्यकर्ताओं के साथ वार्तालाप में छोटी-छोटी बातों पर बहुत ध्यान दिया करते थे। उनका प्रार्थना के शुध्द उच्चारण पर बहुत जोर रहता था। गलत उच्चारण से क्या दुष्परिणाम हो सकता है, इसके लिए वे यह प्राचीन कथा सुनाते थे। एक बार देवता अपने वृध्द पुरोहित से किसी बात पर नाराज हो गये। नाराजगी इतनी अधिक हो गयी कि उन्होंने पुरोहित की हत्या ही कर दी। देवताओं के राजा इन्द्र ने इस कार्य का नेतृत्व किया था। इस कारण पुरोहित के पुत्र ने इन्द्र से बदला लेने की ठान ली। पुरोहित के पुत्र ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने पुरोहित के पुत्र से मन चाहा वर माँगने को कहा। पुरोहित के पुत्र ने इन्द्र से अपनी शत्रुता की बात बताते हुए कहा - मैं ऐसा पुत्र चाहता हूँ, जो 'इन्द्रशत्रु' अर्थात इन्द्र को मारने वाला हो। पर उसने बोलते समय 'इन्द्र' के नाम पर अधिक जोर दिया और 'शत्रु' शब्द को धीरे से बोला। इस पर ब्रह्मा जी हँसे और 'तथास्तु' कहकर विदा हो गये। समय आने पर उसे एक अति बलशाली पुत्र की प्राप्ति हुई। पुरोहित के पुत्र ने सोचा कि अब शीघ्र ही मेरी इच्छा पूरी होगी। मेरा बेटा इन्द्र को मारकर अपने दादा जी की हत्या का बदला अवश्य लेगा। पर जब उस पुत्र ने बड़े होकर इन्द्र को चुनौती दी, तो युध्द में मामला उलट गया। इन्द्र ने उसे ही मार डाला। वास्तव में वरदान माँगते समय 'इन्द्र' शब्द को अधिक जोर से बोलने के कारण इन्द्र प्रभावी हो गये; पर 'शत्रु' शब्द धीरे से बोलने के कारण इन्द्र का शत्रु अर्थात पुरोहित का वह पौत्र कमजोर ही रह गया। इसलिए युध्द में इन्द्र विजयी रहे। इस कथा का अर्थ यह है कि प्रार्थना बोलते समय उसका उच्चारण ठीक होना चाहिए तथा उसके भावार्थ को भी समझना जरूरी है।

देशभक्ति और पैसा
प्राय: लोग समझते हैं कि पैसे से लोगों में देशभक्ति जाग्रत की जा सकती है; पर श्री गुरुजी इस विचार के समर्थक नहीं थे। उनका मानना था कि देशभक्ति श्रध्दा का विषय है। उसे पैसे से प्राप्त नहीं किया जा सकता। 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। युध्द के दौरान पाकिस्तान ने अपने कुछ छतरीधारी सैनिकों को पंजाब में उतार दिया। यह सूचना मिलते ही सरकार ने घोषणा की कि जो कोई उन सैनिकों को पकड़वायेगा, उसे नकद पुरस्कार दिया जायेगा। श्री गुरुजी ने नेताओं से कहा कि यह युध्द का समय है। इस समय प्रत्येक नागरिक में देशभक्ति की भावना हिलोरें ले रही है। अत: हमें जनता से यह आह्वान करना चाहिए कि इन दुश्मनों को पकड़ना हमारा कर्तव्य है। पैसे का लालच देकर लोगों की भावना को हल्का नहीं करना चाहिए। यदि पैसे के लालच में लोग दुश्मन सैनिकों को पकड़ेंगे, तो हो सकता है कि पैसे के लालच में वे उन्हें छोड़ भी दें। देशभक्ति को पैसे से तोलना ठीक नहीं है।
निरर्थक ज्ञान
ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं, जिसके साथ बुध्दि और विवेक न हो। इसे समझाने के लिए श्री गुरुजी ने एक बार यह कथा सुनायी। रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्यों से वार्तालाप में एक बार बताया कि ईश्वर द्वारा बनायी गयी इस सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: प्रत्येक जीव के लिए हमें अपने मन में आदर एवं प्रेम का भाव रखना चाहिए। एक शिष्य ने इस बात को मन में बैठा लिया। कुछ दिन बाद वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि सामने से एक हाथी आ रहा है। हाथी पर बैठा महावत चिल्ला रहा था - सामने से हट जाओ, हाथी पागल है। वह मेरे काबू में भी नहीं है। शिष्य ने यह बात सुनी; पर उसने सोचा कि गुरुजी ने कहा था कि सृष्टि के कण-कण में परमेश्वर का वास है। अत: इस हाथी में भी परमेश्वर होगा। फिर वह मुझे हानि कैसे पहुँचा सकता है ? यह सोचकर उसने महावत की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। जब वह हाथी के निकट आया, तो परमेश्वर का रूप मानकर उसने हाथी को साष्टांग प्रणाम किया। इससे हाथी भड़क गया। उसने शिष्य को सूंड में लपेटा और दूर फेंक दिया। शिष्य को बहुत चोट आयी। वह कराहता हुआ रामकृष्ण परमहंस के पास आया और बोला - आपने जो बताया था, वह सच नहीं है। यदि मुझमें भी वही ईश्वर है, जो हाथी में है, तो उसने मुझे फेंक क्यों दिया ? परमहंस जी ने हँस कर पूछा - क्या हाथी अकेला था ? शिष्य ने कहा - नहीं, उस पर महावत बैठा चिल्ला रहा था कि हाथी पागल है। उसके पास मत आओ। इस पर परमहंस जी ने कहा - पगले, हाथी परमेश्वर का रूप था, तो उस पर बैठा महावत भी तो उसी का रूप था। तुमने महावत रूपी परमेश्वर की बात नहीं मानी, इसलिए तुम्हें हानि उठानी पड़ी। कथा का अभिप्राय यह है कि बड़ों की बात में निहित विचार को ग्रहण करना चहिए। केवल शब्दों को पकड़ने से काम नहीं चलता।