संघ से सम्पर्क
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
श्रीगुरुजी का प्रथम सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बनारस में हुआ। सन् 1928 में नागपुर से काशी विश्वविद्यालय अध्ययनार्थ गये, भैयाजी दाणी तथा नानाजी व्यास जैसे नवयुवकों ने वहां संघ की शाखा प्रारंभ की और सन् 1931 तक उस शाखा की जड़ें अच्छी तरह से जम गयीं। 16 अगस्त, सन् 1931 को जब गुरुजी ने बनारस विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया और शीघ्र ही छात्रों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये और छात्र उन्हें "गुरुजी" कहने लगे तो इसी लोकप्रियता तथा उनके अनेक गुणों के कारण भैयाजी दाणी ने संघ-कार्य तथा संगठन के लिए उनसे अधिकाधिक लाभ उठाने का प्रयास भी किया। परिणामस्वरूप गुरुजी भी शाखा में आने लगे। संघ के स्वयंसेवक अध्ययन में गुरुजी की मदद लेते थे और संघ स्थान पर उनके भाषणों का आयोजन भी करते थे। संघ के विस्तार हेतु इसी बीच करीब 30 स्वयंसेवक शिक्षा प्राप्ति हेतु वाराणसी पहुँचे। इन सब लोगों का श्री गुरुजी से सम्पर्क था। पंचवटी नासिक के श्री स्वामी राघवानन्द जी का कहना था कि, "हम बहुत से लोग श्री गुरुजी के पहले से ही संघ के स्वयंसेवक थे, किन्तु उनके उस प्रथम भाषण से यह दिखाई दिया कि हम सबकी अपेक्षा श्री गुरुजी को ही संघ कार्य का अधिक आंकलन हुआ है। वह एक सुखद सा आघात था" (दात्ये, हरि विनायक, वही, पृष्ठ 27)। लेकिन इसी समय वह संघ अथवा डा. हेडगेवार जी के नाम से भी प्रभावित हो चुके थे, जैसा कि उन्होंने स्वयं ही सहजता से स्वीकार किया है, "मैं तो रहा एक दम बहुत ही यहाँ-वहाँ घूमने वाला, फिर भी पता नहीं मुझ पर कैसे संस्कार हो गया। इस तथ्य को या तो भगवान ही जानता है या संस्कार डालने वाला। एक बार भूल से डाक्टर जी का भाषण सुनने बैठ गया, मुझे अपनी बुध्दि पर बड़ा घमण्ड था, उस भाषण में न तो कोई तर्क था, न कोई इतिहास का हवाला, न दर्शन था, न कोई बड़ा सिध्दान्त। डाक्टर जी ने कहा था कि बस इतना ही स्वयंसेवक बन्धुओं काम करते जाइये, निष्ठापूर्वक काम करते जाइये। प्रेम से काम करते जाइये। मैंने सोचा कि यह मात्र तोता-रटन्त है ........ उसका मूल्य मैंने जाना नहीं ..... किन्तु अब सब भुला बैठा हूँ मैं। उस भाषण में मुझे पाण्डित्य नहीं दिखाई दिया ..... उस भाषण में आर्द्रता थी ..... किन्तु डाक्टर जी का भाषण अन्त:करण की एक-एक तह पार करता हुआ गहरा उतर गया। यह सत्य है मैं विद्वान् था। परन्तु डाक्टर जी के भाषण में हार्दिकता थी, लगन थी। मैं नहीं कह सकता कि कैसे उनका भाषण मेरे अन्त:करण में उतरता चला गया। बीच-बीच में उनसे भेंट-मुलाकात होती रही। डाक्टर जी ने मेरे अभिमान को झकझोर दिया।" (बकां, राधोश्याम, श्री गुरुजी जीवन प्रसंग, भाग-2, पृष्ठ 17-18) डा. हेडगेवार जी से उनका सम्बन्ध सन् 1931 से ही था (भिशीकर, च.प, वही, पृष्ठ 34)।
 
बनारस में अध्यापनकाल के दौरान श्री गुरुजी ने श्री रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी का समग्र साहित्य पढ़ लिया था। बनारस में एक कार्यक्रम में नियम तोड़ कर अन्य मार्ग से भीतर प्रवेश करने वाले एक अहंकारी अध्यापक को रोकने वाले स्वयंसेवकों का भी श्री गुरुजी ने साथ दिया था। जनवरी 1933 को उनकी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की सेवाएँ समाप्त हो गयीं, जिस कारण उन्हें नागपुर वापस आना पड़ा।