संस्कृति: राष्ट्र संकल्पना का हृदय
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
राष्ट्र यानी लोग या समाज होता है। उसकी विशेषता उस समाज की संस्कृति होती है। संस्कृति यानी उस समाज के जीवनमूल्य, संस्कृति यानी उस समाज के अच्छे और बुरे नापने के मापदण्ड। संक्षेप में संस्कृति यानी राष्ट्र और राष्ट्रीयता का प्राण। श्री गुरुजी कहते है:-
''हिन्दू राष्ट्र की हमारी कल्पना राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों का एक गट्ठर मात्र नहीं है। वह तत्तवत: सांस्कृतिक है। हमारे प्राचीन एवं उदात्त सांस्कृतिक जीवनमूल्यों से उसके प्राणों की रचना हुई है। और हमारी संस्कृति की भावना का उत्कट नवतारुण्य (rejuvenation) ही हमारे राष्ट्रीय जीवन की सही दृष्टि हमें प्रदान कर सकता है तथा आज हमारे राष्ट्र के सम्मुख खड़ी हुई अगणित समस्याओं के समाधान में हमारे सभी प्रयत्नों को सफल दिशानिर्देश भी कर सकता है।
 
''किन्तु इन दिनों संस्कृति के नवतारुण्य को प्राय: 'पुनरुज्जीवनवाद' और प्रतिक्रियावाद होने की उपाधि दी जाती है। प्राचीन पूर्वाग्रहों, मूढ़ विश्वासों, अथवा समाजविरोधी रीतियों का पुनरुज्जीवन प्रतिक्रियात्मक कहा जा सकता है, कारण इसका परिणाम समाज का पाषाणीकरण (fossilisation) में हो सकता है। किन्तु शाश्वत एवं उत्कर्षकारी जीवनमूल्यों का नवतारुण्य कभी प्रतिक्रियात्मक नहीं हो सकता। इसे केवल प्राचीन होने के कारण प्रतिक्रियात्मक' नाम देना, बौध्दिक दिवालियापन प्रकट करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अपनी संस्कृति के नवतारुण्य से हमारा आशय उन शाश्वत जीवनादर्शों को पुन: जीवन में उतारने से है, जिन्होंने इन सहस्रों वर्षों तक हमारे राष्ट्रजीवन को पोषित किया और अमरता प्रदान की।''
 
अपनी संस्कृति की विशेषताओं का विवेचन करते हुए श्री गुरुजी कहते हैं -''प्रथम एंव सर्वाधिक मूलभूत पहलू है उस परम सत्य की अनुभूति की आकांक्षा, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है, चाहे उसे कुछ भी नाम दिया गया हो। अथवा सरल शब्दों में कहा जाय तो ''ईश्वर का साक्षात्कार करना। किन्तु ईश्वर है कहाँ? हम उसे कैसे जान सकते हैं? उसका स्वरूप कैसा है? उसके रूप, गुण क्या हैं कि हम उसका धयान कर सकें और उसको पावें? उसका यह वर्णन कि वह निर्गुण और निराकार है इत्यादि, हमारी समस्याओं को सुलझाता नहीं। पूजा के विविध पंथ भी विकसित हुए हैं। लोग मंदिरों में जाते हैं और सर्वशक्तिमान् का प्रतीक मानकर मूर्तियों पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु जो कि कर्मशक्ति से पूर्ण है उनको यह सब सन्तुष्ट नहीं करता।
 
''अतएव हमारे पूर्वजों ने कहा है ''हमारा समाज ही हमारा ईश्वर है। ''जनता जनार्दन'' है। भगवान् रामकृष्ण परमहंस ने कहा है -'मनुष्य की सेवा करो'। जनता में जनार्दन देखने की यह अतिश्रेष्ठ दृष्टि ही हमारे राष्ट्रकल्पना का हृदय है। उसने हमारे चिन्तन को परिव्याप्त कर लिया है तथा हमारे सांस्कृतिक दाय की विविध अनुपम कल्पनाओं को जन्म दिया है।''
 
ईश्वर की सेवा यानी समाज की सेवा। ईश्वर की पूजा यानी जनता जनार्दन की पूजा। इस भाव को यदि हमने हृदयंगम किया तो फिर मनुष्य अपने अधिकारों की बात नहीं करेगा। अपने कर्तव्यों का ध्यान रखेगा। श्री गुरुजी कहते हैं ''आज हम सभी जगह अधिकारों के लिए मचा हुआ कोलाहल सुनते हैं। हमारे सभी राजनैतिक दल समान अधिकारों की बात बोलते हुए लोगों में अहंभाव जागृत कर रहे हैं। कहीं भी कर्तव्य और नि:स्वार्थ भाव की सेवा पर कोई बल नहीं दिया जाता। स्व-केन्द्रित अधिकार-ज्ञान के वायुमण्डल में सहयोग की भावना, जो समाज की आत्मा होती है, जीवित नहीं रह सकती। इसी कारण आज हम अपने राष्ट्रजीवन में विविध घटकों के बीच संघर्ष देख रहे हैं। केवल हमारी सांस्कृतिक दृष्टि के आत्मसात् करने से ही हमारे राष्ट्रजीवन में सहयोग की सच्ची भावना एवं कर्तव्य की चेतना पुनर्जीवित हो सकती है।'' अपनी संस्कृति की और एक विशेषता, श्री गुरुजी बताते हैं। ''हिमाचल के समान उन्नत हमारी संस्कृति का एक और शिखर है जिसपर पहुँचने की महत्वाकांक्षा अभी तक संसार में अन्य किसी ने नहीं की है। 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति'' वाक्य द्वारा जिस भाव की अभिव्यक्ति की गई है- अर्थात् सत्य एक है, ऋषि उसे विविध प्रकार से बताते हैं - इस प्रकार भाव को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी में कोई शब्दरचना नहीं है। 'सहिष्णुता' शब्द, जो इस भाव को व्यक्त करने के लिए प्रयोग में आता है, बहुत नीचा है। वह तो सहन करने मात्र का भाव व्यक्त करने के लिए एक अन्य शब्द है। इसमें एक अहं का भाव है, जो केवल दूसरों के दृष्टिकोण को मात्र सहन करता है, उसके लिए कोई प्रेम या सम्मान नहीं रखता। परन्तु, हमारी शिक्षा अन्य विश्वासों एवं दृष्टिकोणों को इस रूप में सम्मान करने तथा स्वीकार करने की भी रही है कि वे सब एकही सत्य तक पहुँचने के लिए अनेक मार्ग हैं।''
 
श्री गुरुजी आगे बताते हैं ''जब हम अपने उदात्त सांस्कृतिक मूल्यों की बात करते हें तो आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता में पले हुए लोग सोचते हैं कि यह कोई रहस्यात्मक चीज है, कुछ पारलौकिक वस्तु है। किन्तु यह केवल हमारे मानसिक दास्य की वर्तमान गहराई को ही प्रकट करता है, जिसने हमें उन सिध्दान्तों को समझने के सामर्थ्य से भी वंचित कर दिया है, जो कभी हमारे राष्ट्रजीवन का गौरव थे।''
 
नाच, गाना, नाटक, चलचित्र को ही सांस्कृतिक कार्य मानना श्री गुरुजी को मान्य होना सम्भव ही नहीं था। वे कहते हैं ''आज हम एक दूसरी पराकाष्ठा देखते हैं। नाच, गाना, चलचित्र तथा नाटकों को ही हम संस्कृति मानने लगे हैं। हम इस प्रकार के 'सांस्कृतिक कार्यक्रम' अपने देश में सभी जगह चलते हुए देखते हैं। निस्संशयरूपेण हल्के मनोरंजन का एक दूसरा नाम संस्कृति हो गया है। यह इतनी हास्यासपद और अपमानकारी सीमा तक पहुँच गया है कि नैतिक दुश्चरित्रता के कीचड़ में फँसे हुए चलचित्र के कुख्यात नट-नटी हमारे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमण्डलों में सम्मिलित किये जाते हैं। जिस देश में राम और सीता जैसे आदर्श चरित्र हुए, जिसने भूतकाल में श्रेष्ठतम दार्शनिक एवं ऋषियों और वर्तमान काल में विश्व में सहज सम्मान तथा प्रेमादर प्राप्त करनेवाले रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद जैसे व्यक्तियों को अपने सांस्कृतिक प्रतिनिधि के नाते भेजा है, वहाँ से ऐसे व्यक्तियों का हमारे देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के नाते जाना हमारे पतन का एक भयावह दृश्य उपस्थित करता है।'' हमारी इस उन्नत संस्कृति की आवश्यकता केवल अपने देश तक सीमित नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी उसकी उपयोगिता है, इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए श्री गुरुजी बोलते है, ''हमारी सांस्कृतिक दृष्टि को ही, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम और सामंजस्य के लिए सच्चा आधार प्रदान करती है, और जीवन के सम्पूर्ण दर्शन को पूर्त करती है, आज के इस युध्द से उध्वस्त हुए विश्व के सामने प्रभावी ढंग से रखने की आवश्यकता है। यदि इस महान जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें प्रथम अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें विदेशी वादों (isms) की मानसिक शृंखलाओं और आधुनिक जीवन के विदेशी व्यवहारों तथा अस्थिर ''फैशनों'' से अपनी मुक्ति कर लेनी होगी। परानुकरण से बढ़कर राष्ट्र की अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती है। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण प्रगति नहीं है।''
(विचार नवनीत-पृष्ठ. 23 से 32)