शिक्षा
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
1. केवल साक्षरता प्रसार यानी शिक्षा, ऐसी मेरी धारणा नहीं है, अन्य शिक्षा भी दी जानी चाहिये। साक्षरता प्रसार के पीछे मतदान का प्रश्न प्रमुख रहता है। अपने को सत्ता की आकांक्षा नहीं है। अपने यहाँ साक्षरता का प्रसार शिक्षा का एक पहलू है। व्यावहारिकता, कार्य के लिये दृढ़ भावना निर्माण करना उसका प्रमुख हेतु था।
2. वर्तमान की शिक्षा जीवलोक में अर्थकरी विद्या' है। इस प्रकार की विद्या से केवल अर्थ प्राप्त होता है, जीविका का साधान प्राप्त होता है। परन्तु आज की विद्या तो 'अर्थकरी' भी नहीं रह गई है। नौकरी करना दास-प्रवृत्ति ही तो है। नौकरी करना यानी गुलामी करना। अर्थकरी का तात्पर्य है कि जो अधययन किया है, जो बुध्दि है, उससे स्वंतत्रतापूर्वक अपना द्रव्यार्जन कर जीविका चलाना। जो इस प्रकार अपनी जीविका चला सकता है, वास्तव में उसी की विद्या अर्थकरी है। आज ऐसी अर्थकरी विद्या अपने यहाँ नहीं है। केवल नौकरी की प्रवृत्ति उत्पन्ना करनेवाली विद्या यहाँ चल रही है, ऐसी विद्या से देश की भलाई नहीं हो सकती।
3. अपने यहाँ शिक्षा का हेतु बहुत ही उच्च बताया गया है। शिक्षा से मनुष्य में जो एक चिरंतन सत्य तत्व है, उसे अविष्कृत करने की क्षमता प्राप्त होनी चाहिये। उसके लिये आवश्यक गुण विकसित हों, जिससे जगत् भर के अनेकानेक आवश्यक विषयों का ज्ञान प्राप्त होकर, उसे यह बोधा हो सके कि अपनी सत्य अवस्था का ज्ञान मुझे है। इसलिये अपने यहाँ कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य को वे प्राथमिक बातें सीखनी चाहिये, जिनसे मनुष्य को अपनी वास्तविक स्थिति अर्थात अपने चिरंतन तत्तव का थोड़ा-बहुत बोधा हो सके। मनुष्य की आत्मा को मानो प्रकट करना ही शिक्षा का कार्य है। इस अर्थ में तो आजकल कहीं शिक्षा होती नहीं। केवल इधार-उधार के दो-चार विषयों के टूटे-फूटे, अधाकचरे टुकड़े ही दिमाग में भरे जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि दिमाग को कचरा डालने वाली पेटी बना दिया गया है।