आदर्श समाज रचना
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
आदर्श समाज स्थिति का सपना अनेक तत्त्वविदों ने, समाजशास्त्रियों ने, मनीषियों ने रखा है। आधुनिक काल में कार्ल माक्र्स ने समतायुक्त, शोषणमुक्त शासनविहीन समाज का सपना रखा। महात्मा गांधी ने अहिंसा और सत्य पर आधारित सर्वोदय समाज का सपना देखा। डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय पर आधारित समाज रचना का सपना देखा। श्री गुरुजी ऐसा कोई काल्पनिक आदर्श समाज का चित्र नहीं रखते। वे अपने प्राचीनतम इतिहास के आयने में देखकर श्रेष्ठ समाज रचना का चित्र - जो किसी समय वास्तविकता थी - सम्मुख रखते हैं। वे कहते हैं, ''हमारी हिंदू संस्कृति ने समाज का कौनसा चित्र रखा है? इस प्रश्न का विचार
करते समय हमारे सम्मुख जो अपना चित्र आता है, उसमें हम देखते हैं कि हमारे यहाँ समाजजीवन के भाव के अनुसार ही युग की कल्पना रखी गई है - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग। इनमें से प्रत्येक में समाज की विशेष स्थिति होती है। सतयुग में सब समान थे, संपत्ति सबकी थी, जिसमें से आवश्यकतानुसार लेकर सब सुख का जीवन व्यतीत करते थे। धर्म चारों अंगों से समाज में व्याप्त था। समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। यह सत्युग की कल्पना है।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 2, पृष्ठ 95)
आज की सामाजिक परिभाषा में कहना है तो यूँ कहा जा सकता है कि इस स्थिति में सभी समान हैं, सार्वजनिक बंधुभाव है, किसी पर कोई अन्याय नहीं और समाज के स्त्री-पुरुष सार्वत्रिक समरसता का अनुभव करते हैं। समाज की इस स्थिति को 'साम्यावस्था' भी कहा जा सकता है। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: कोई बुध्दिमान होता है, कोई कम बुध्दिवाला, कोई गोरा होता है तो कोई काला, कोई ऊँचा होता है तो कोई ठिगना (Dwarf) रुचिभिन्नता, स्वभावभिन्नता, गुणभिन्नता है। इस का मतलब हुआ कि निसर्गत: मानव समाज में गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। श्री गुरुजी इस जन्मत: असमानता को विषमता नहीं मानते। वे कहते हैं कि एक ही चैतन्य का यह विविधतापूर्ण आविष्कार है। श्री गुरुजी के शब्द इस प्रकार हैं - ''आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है।''
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 2, पृष्ठ 98)
श्री गुरुजी समरस समाज जीवन का एक श्रेष्ठ दार्शनिक आधार यहाँ प्रस्तुत करते हैं। निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसको भेद मानना, विषमता मानना गलत है, इसको और अधिक स्पष्ट करते हुए वृक्ष के दृष्टांत से वे कहते हैं,'उदाहरणार्थ एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' (अ.भा.जिला प्रचारक वर्ग, सिंदी, विदर्भ - 1954)