श्री गुरुजी और गोरक्षा
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
विजय कुमार
सहायक सम्पादक 'राष्ट्रधर्म' (मासिक)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म सुप्त हिन्दू समाज के संगठन एवं हिन्दू जीवन-मूल्यों के संरक्षण के लिए ही हुआ था। गोवंश की सेवा एवं रक्षा सदा से हिन्दू समाज का जीवनादर्श रहा है। अत: गोरक्षा का प्रश्न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए सदा महत्वपूर्ण रहा है।
संकेत
संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) हिन्दू धर्म-ग्रन्थों के गंभीर अध्येता थे। उनके जीवनकाल में स्वयंसेवकों ने अनेक नये संगठन प्रारम्भ किये। श्री गुरुजी की उपस्थिति में 1964 में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मुंबई में स्थापित विश्व हिन्दू परिषद ऐसा ही एक संगठन है।
 
भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं गोपाल थे। उनके जन्मदिवस को विहिप की स्थापना के लिए चुनने का संकेत पहले दिन से ही स्पष्ट है। आज गोरक्षा का अर्थ केवल कसाइयों से गाय की रक्षा करना मात्र नहीं, अपितु गोसंरक्षण एवं संवर्ध्दन भी है। श्री गुरुजी ने अनेक बार इस विषय पर हमारा ध्यान आकर्षित किया है।
 
घाटे का सौदा नहीं
विदेशी चिन्तन से प्रभावित अनेक अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि गाय का पालन घाटे का सौदा है। किसान अपने परिवार का पेट भरे या वृध्द गाय और बैल का। प्रथम आम चुनाव के तुरन्त बाद जब गोरक्षा के लिए पूरे देश में हस्ताक्षर अभियान चलाया गया, तो उन दिनों ऐसा प्रश्न लोग प्राय: पूछते थे।
 
इस पर श्री गुरुजी कहते थे : ''गाय एक ऐसा प्राणी है, जो जितना खाता है, उससे अनेक गुना अधिक मनुष्य को वापस करता है। दूध के रूप में, उसके द्वारा विसर्जित किये जाने वाले पदार्थों गोबर-गोमूत्र आदि के द्वारा मिलने वाली खाद के रूप में और मृत्यु के बाद चर्म और अस्थि के रूप में वह हमें वापस करती है। उसका यदि हिसाब लगायें तो कहना पड़ेगा कि गाय के ऊपर यदि किसी ने सौ रुपये खर्च किये, तो उसे कम से कम पांच सौ रुपये मिलते हैं। इसे आर्थिक दृष्टि से लाभ कहोगे या हानि?''
''अत: मनुष्य का खाना-पीना जिस पर निर्भर है, वह कृषि; और कृषि जिस पर निर्भर है, वह गोवंश, सम्पूर्ण दृष्टि से सम्वर्धीत होना आवश्यक है। उनके पोषण की चिन्ता करना और गोवंश की हत्या बन्द हो, इसके लिए सब प्रकार के प्रयत्नों की आवश्यकता है। सरकारी तौर पर कानून बनाकर, उसकी हत्या के लिए कड़े दण्ड का प्रबन्ध करते हुए हत्या बन्द करना नितांत आवश्यक है।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 3, पृष्ठ-212-13)।
 
दूरद्रष्टा
एक अन्य स्थान पर इसी विषय की चर्चा करते हुए श्रीगुरुजी ने कहा था : ''लोग तर्क देते हैं कि गायों की वृध्दि से मनुष्यों की भोजन-सामग्री घट जायेगी। यह तर्क ठीक नहीं है; क्योंकि गाय मनुष्य का भोजन तो खाती नहीं। वह तो अनाज निकालने के बाद जो भूसा बचता है, वही खाती है।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-65)।
 
श्री गुरुजी दूरद्रष्टा थे। उनके विचारों की अनेक अर्थशास्त्री एवं नेहरू दर्शन से प्रभावित वामपंथी बुध्दिजीवी हँसी उड़ाते थे; पर आज वे सब बातें न केवल भारतीय अपितु विदेशी वैज्ञानिकों द्वारा भी सत्य सिध्द की जा रही है।
 
गांधीजी और गोरक्षा
स्वतंत्रता आंदोलन में मुसलमानों को साथ लेने के लिए गांधीजी ने अनेक बार समझौते किये। कुछ लोगों का मत है कि गोरक्षा भी उनमें से एक था; पर इस विषय पर उनके विचार दो टूक थे। एक कार्यकर्ता ने पूछा कि जब गांधीजी स्वयं गोहत्या के पक्ष में थे, तो हस्ताक्षर अभियान में हम कांग्रेसियों का सहयोग कैसे ले सकते हैं? इस पर श्री गुरुजी ने कहा : ''महात्मा गांधी गोरक्षा के पक्ष में थे। वे अपनी प्रार्थना में सबसे पहले गाय और ब्राह्मण की रक्षा का श्लोक कहते थे। गोरक्षा के प्रश्न को वे कितना महत्व देते थे, इसका एक उदाहरण बताता हूँ। अपने देश को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के प्रयत्न चल रहे थे, तब कांग्रेस ने सोचा कि मुस्लिम लीग से समझौता कर लेने पर स्वराज्य-प्राप्ति में सुगमता होगी। गांधीजी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य तो नहीं थे; पर परामर्श अवश्य देते थे। मुस्लिम लीग से समझौते का कागज श्री महादेव देसाई ने जब उन्हें दिखाया, तब उन्होंने उसे पढ़कर लौटा दिया और समझौते को अपनी स्वीकृति दे दी।
 
उस समझौते में एक शर्त यह थी कि स्वराज्य-प्राप्ति के बाद मुसलमानों को गोहत्या का अधिकार रहेगा। इस छोटी-सी बात के कारण गांधीजी को बड़ी बेचैनी हुई। उन्हें रात भर नींद नहीं आयी। रात में ही उन्होंने महादेव देसाई से समझौते का कागज मँगवाया। उसे ठीक से पढ़ने के बाद उन्होंने कहा 'गोहत्या की शर्त मुझे मान्य नहीं। गाय के प्रति हम कृतज्ञ हैं। इसलिए उसकी रक्षा अपना परम कर्तव्य है।' समझौता उसी समय टूट गया।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-63)।
 
गोहत्या मजहबी आदेश नहीं
श्री गुरुजी कहते थे कि गोरक्षा केवल हिन्दुओं का विषय नहीं है। गाय मातृत्व भाव से सभी प्राणियों का पालन करती है। अत: गोरक्षा अभियान में मुसलमानों का भी सहयोग लेना चाहिए।
 
एक स्थान पर यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि मुसलमान गोरक्षा के काम में कभी सहयोग नहीं देंगे, चूंकि कुरान में गाय की हत्या करने का निर्देश दिया गया है। इस पर श्री गुरुजी ने कहा : ''कुरान-शरीफ में ऐसा आदेश नहीं है। यदि ऐसा होता, तो मुगल-शासन में गोहत्या पर प्रतिबन्ध नहीं होता। हम यह जानते हैं कि बाबर ने यहाँ के लोगों की भावना को कुचलना उचित न समझकर गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इसके पीछे यदि मुसलमानों का धार्मिक भाव होता, तो बाबर उसका पालन करता; क्योंकि वह अपनी धार्मिक पुस्तक के विरोध में जाने वाला व्यक्ति नहीं था।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-63)।
 
वास्तविक अर्थ
कुछ वामपंथी गोहत्या को तर्कसंगत ठहराते हुए कहते हैं कि वेद गोमांस खाने की स्वीकृति देते हैं। इस बारे में श्री गुरुजी के सम्मुख प्रश्न आने पर उन्होंने कहा : ''कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो गोहत्या समर्थन में वेदों के प्रमाण देते हैं। वे कहते हैं कि वेदों में 'गो-मेधा' यज्ञ का वर्णन आया है। उनका कहना है कि प्राचीन काल में लोग गोहत्या करके यज्ञ करते थे तब गोमांस खाते थे। वस्तुत: ये सब प्रमाण काल्पनिक हैं। शब्दों के अर्थ यथार्थ लगाना चाहिए।
 
'गो-मेधा' का अर्थ यदि गाय को काटकर यज्ञ करना है, तो 'पितृ-मेधा' का भी अर्थ माता-पिता की आहुति देना हो सकता है। 'गृह-मेधा यज्ञ' भी कहा गया है; पर उसका अर्थ घर को आग लगाना तो है नहीं। इसका अर्थ कुछ और ही है। इसलिए जो वास्तविक अर्थ है, उसको लेना चाहिए। अपना स्वार्थ सिध्द करने के लिए ऐसे पाप का समर्थन करना अनुचित है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 5 , पृष्ठ-65)।
 
इतिहास का साक्ष
श्री गुरुजी गोरक्षा के प्रश्न को इतिहास से जोड़ते हुए इसे अपने महान पुरखों की परम्परा बताते हैं। उनके मतानुसार : ''स्वातन्त्र्य के लिए लड़ने वाले सब वीरों ने गोहत्या पर रोक लगाने को अपना ध्येय घोषित किया था। उसका अर्थ यह था कि वे अपने राष्ट्रीय जीवन के हर कलंक को मिटाने तथा अपनी पूज्य संस्कृति को पुनरपि वर्ध्दमान करने वाले यहाँ के जनजीवन को उच्चतर एवं पवित्रतर बनाने वाले स्वातन्त्र्य को पुनरपि प्रस्थापित करने पर तुले हुए थे।
 
''छत्रपति शिवाजी महाराज गोब्राह्मण प्रतिपालक कहलाते थे। श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज ने अपनी आर्त प्रार्थना में तुर्कों का नाश करने के लिए तथा गाय को पीड़ा से बचाने के लिए तथा धर्म-संरक्षण के लिए ही सामर्थ्य माँगा है। सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युध्द का विस्फोट गो-विषयक स्फुलिंग से ही हुआ। कूकाओं के शस्त्रोद्यत होने के लिए गोभक्ति की ही प्रेरणा थी।
''उत्तर काल में लोकमान्य तिलक तथा महात्मा गांधी जैसे स्वातन्त्र्य युध्द के महान नेताओं ने यही घोषित किया था कि यहाँ से जब हम अंग्रेजों को भगा देंगे, तब स्वतंत्र भारत का पहला कानून गोवंश की हत्या का सम्पूर्ण निषेध करने वाला होगा। महात्मा गांधी जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि गाय की समस्या का महत्व प्रत्यक्ष स्वराज्य से भी बढ़कर है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274)।
 
गो-संवर्धन भी आवश्यक
श्री गुरुजी का मत था कि गोरक्षा के लिए आंदोलन के साथ ही गोवंश के संवर्ध्दन के लिए गोशालाएँ एवं पिंजरापोल आदि स्थापित होने चाहिएँ। इस बारे में वे शास्त्रीय मत की चर्चा करते हुए कहते हैं : ''अपनी प्राचीन परम्परा में अपने पास जो भी जमीन होती थी, उसका एक तिहाई हिस्सा गोचर के रूप में छोड़ दिया जाता था। इसके पीछे एक शास्त्रीय दृष्टिकोण है। प्रथमत: तो गोचर से गायों को घास प्राप्त होती है, दूसरी बात यह कि इससे भूमि की उर्वरा-शक्ति बनी रहती है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-65)।
 
श्री गुरुजी के मतानुसार इस कार्य से ही हमें सच्चा स्वराज्य प्राप्त होगा। अपने मन की पीड़ा व्यक्त करते हुए वे कहते हैं : ''आश्चर्य की बात है कि परदेशी शासक जाने के बाद बने हुए हमारे शासन ने आज तक यह नहीं पहचाना है कि यह विषय राष्ट्रीयता की दृष्टि से प्रथम श्रेणी का महत्व रखता है। अवस्था का विचार किये बिना गोवंश की हत्या जब तक हम पूर्णत: बंद नहीं करते, तब तक हमारा स्वराज्य अपूर्ण है। इस रूप में पारतंत्र्य के अत्यन्त पीड़ादायक चिन्ह शेष हैं और वे हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को बुझाने का काम करते हैं। इस बात को हमारे वर्तमान शासकों ने कभी समझा ही नहीं।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274-75)।
 
आज गोसंरक्षण का प्रश्न न केवल धर्म अपितु अर्थ की दृष्टि से भी वैज्ञानिक कसौटियों पर खरा उतर रहा है। ऐसे में पचास साल पहले श्री गुरुजी द्वारा व्यक्त किये हुए विचार फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। श्री गुरुजी के जन्म शताब्दी वर्ष में उन विचारों पर गहन चिंतन और मनन की आवश्यकता एक बार फिर से प्रतीत हो रही है।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.