शिक्षण
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
शिशु मधु जब दो वर्ष के थे, तभी से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हो गयी थी। भाऊजी उन्हें पढ़ाते थे और वह सहज ही इसे कंठस्थ कर लेते थे। बालक माधव में कुशाग्र बुध्दि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था(भिशीकर, च.प., नवयुग प्रवर्तक श्री गुरुजी, पृष्ठ 6)। प्रत्येक गुण का आकर्षण व सीखने की उत्कृष्ट अभिरुचि भी उनमें दृष्टिगोचर होती थी। भाऊजी ने प्रारम्भ से ही माधव को अंग्रेजी विषय का ज्ञान देना प्रारम्भ कर दिया था। माधव कक्षा-4 से ही नागपुर स्थित अपने मामा को अंग्रेजी में पत्र लिखा करते थे। माधव का प्रारम्भ से मातृ भाषा मराठी, अंग्रेजी, हिन्दी पर अच्छा अधिकार था। उनकी शिक्षा की नींव घर में ही रखी गयी होगी परन्तु उनकी विद्यालयी शिक्षा यथाकाल शुरू हुई होगी, तभी उन्होंने सन् 1915 में अपनी उम्र के 9वें वर्ष में चौथी कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की और तत्कालीन सम्पूर्ण विभाग में प्रथम स्थान पाया और छात्रवृत्ति अर्जित की (दात्ये हरि विनायक, आरती आलोक की, पृष्ठ 13)। सन् 1919 में उन्होंने 'हाईस्कूल, एन्ट्रेन्स एण्ड स्कॉलरशिप एक्जामिनेशन' में विशेष योग्यता दिखाकर पुनः छात्रवृत्ति प्राप्त की। सन् 1922 में 16 वर्ष की आयु में माधव ने मैट्रिक की परीक्षा चांदा (अब चन्द्रपुर) के जुबली हाईस्कूल से उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् सन् 1924 में उन्होंने नागपुर के ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित हिस्लाप कॉलेज से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष प्राविण्य के साथ सफलता प्राप्त की। अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। कॉलेज जीवन में एक उत्कृष्ट खिलाड़ी और मेधावी छात्र के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की (भिशीकर, वही, पृष्ठ 19)। वे भरपूर हाकी खेलते थे, कभी-कभी टेनिस भी। व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने बांसुरी एवं सितार वादन में अच्छी प्रवीणता हासिल कर ली थी (दात्ये, हरि विनायक, वही, पृष्ठ 14)।
 
इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद माधवराव के जीवन में एक नये दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारम्भ सन् 1924 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ हुआ। सन् 1926 में उन्होंने बी.एस-सी. की परीक्षा और सन् 1928 में एम.एस-सी. की परीक्षायें भी प्राणि-शास्त्र विषय में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। इस तरह उनका विद्यार्थी जीवन अत्यन्त यशस्वी रहा। विश्वविद्यालयीन चार वर्षों के कालखण्ड में उन्होंने विषय के अध्ययन के अलावा ''संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शन, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द की ओजपूर्ण एवं प्रेरक 'विचार सम्पदा', भिन्न-भिन्न उपासना-पंथों के प्रमुख ग्रंथों तथा शास्त्रीय विषयों के अनेक ग्रंथों का आस्थापूर्वक पठन किया (भिशीकर, वही, पृष्ठ 11)।'' इसी बीच उनकी रुची आध्यात्मिक जीवन की ओर भी हुई। एम.एस-सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् श्री गुरुजी प्राणि-शास्त्र विषय में 'मत्स्य जीवन' पर शोध कार्य हेतु मद्रास (चेन्नई) के मत्स्यालय से जुड़ गये। एक वर्ष के दौरान ही उनके पिता श्री भाऊजी सेवानिवृत्त हो गये, जिसके कारण वह श्री गुरुजी को पैसा भेजने में असमर्थ हो गये। इसी मद्रास प्रवास के दौरान वे गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये। चिकित्सक का विचार था कि यदि सावधानी नहीं बरती तो रोग गम्भीर रूप धारण कर सकता है। दो माह के इलाज के बाद श्री गुरुजी रोगमुक्त हुए परन्तु उनका स्वास्थ्य पूर्णरूपेण ठीक नहीं हुआ। मद्रास प्रवास के दौरान जब वे शोधा कार्यरत थे, तो एक बार हैद्राबाद का निजाम मत्स्यालय देखने के लिए आया। नियमानुसार प्रवेश शुल्क दिये बिना उन्हें प्रवेश देने से श्री गुरुजी ने इन्कार कर दिया (भिशीकर, च.प., वही, पृष्ठ 20)। आर्थिक तंगी के कारण श्री गुरुजी को अपना शोध कार्य अधूरा छोड़ कर अप्रैल 1929 में नागपुर लौटना पड़ा।