कार्यकर्ता
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
1. हमें उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करनेवाले, ध्येयवादी, कठोर निश्चयी, अपना सब कुछ संघ को समर्पित करनेवाले युवकों को एकसूत्र में पिरोना है। अपने स्वयं से प्रारंभ कर यह उत्तरदायित्व ग्रहण किया जाए। अपने अन्त:करण में अन्य वृत्तियों को स्थान न रहे। सुवर्ण के कण-कण को तोड़ा गया तो भी शुध्द सुवर्ण ही मिलता है, उसी प्रकार अपने मन का कण-कण संघमय रहना चाहिये। अखण्ड तैल-धारा के समान अपनी वृत्ति एकाग्र रहनी चाहिये। इतनी तन्मयता हो कि अपने सारे व्यवहार-भोजन, शयन आदि संघ के लिये ही हों।
2. यद्यपि अत्यन्त प्रक्षोभजनक, उद्वेग पैदा करनेवाली घटनाएँ होती हों, तब भी अपना धीरज और गम्भीर वृत्ति नहीं छोड़नी चाहिये। लोग भले ही अपनी उस वृत्ति का उपहास करते हों, फिर भी हमें उसके बारे में मौन रहना चाहिये। हमें संगठन करना है, इसलिये अहंकार का त्याग करना होगा। अहंकार-त्याग ही सर्वस्व त्याग है। अहंकार का त्याग करने के पश्चात् त्याग करने को कुछ भी शेष नहीं बचता।
3. हम लोग काम में शीघ्रता से जुटें, इसलिये अपने डॉक्टर जी हमें कार्यवृध्दि की मर्यादा बतला गये हैं कि 'नगरों में तीन प्रतिशत और ग्रामों में एक प्रतिशत ऐसे स्वयंसेवक तैयार किये जाएँ, जिनका जीवन संघमय हो।' इसका यह अर्थ नहीं है कि तीन और एक प्रतिशत की सीमा पूर्ण करने मात्र से संघकार्य पूरा हो जाएगा। हम लोग पूरी शक्ति के साथ काम में जुटें, इसके लिये डॉक्टर जी ने सामान्य स्वयंसेवक की दृष्टि जिस सीमा तक पहुँच सकती है, उसका उल्लेख किया था।
4. अपने काम में केवल श्रध्दा का गुण होना ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ बुध्दिमत्ता और नेतृत्व-कुशलता भी होनी चाहिये। कुछ स्वयंसेवक केवल श्रध्दा से आते हैं, वे उत्तम अनुयायी होते हैं। श्रध्दालुता में कभी-कभी स्वभाव का भोलापन होता है, क्वचित् पागलपन भी रहता है। वह नहीं चाहिये। अंधी-लूली श्रध्दा किस काम की?
5. शुष्क तत्वचिंतन से मन इतस्तत: भटकने लगता है, बुध्दि कई बार अकर्मण्य बन जाती है। किंतु स्फूर्तिदायक आलंबन के प्राप्त होते ही तत्त्वचिंतन सुलभ हो जाता है। किसी आधार के अभाव में व्यापक और महान् शक्ति की अनुभूति यदि असंभव नहीं, तो भी कठिन अवश्य है। हमने डाक्टर साहब का कार्य स्वीकार किया है। उस तत्त्व को हृदयंगम कर, तदनुरूप अपने जीवन को ढालने के लिये उन्हीं के समान भावनाओं से ओतप्रोत अपने हृदय की स्थिति बनाना आवश्यक है। शुष्क शब्द उसके लिये सहायक नहीं हो सकते।
6. स्वार्थ, मोह, चारों ओर के वातावरण में व्याप्त भिन्न-भिन्न विचारों का संघर्ष तथा अन्य आकर्षणों से अपने हृदय को विचलित न होने देते हुए, अपनी मातृभूमि, अपना समाज, स्वधर्म और अपने चिरंजीव राष्ट्रजीवन का, अंत:करण की सम्पूर्ण शक्ति लगाकर चिंतन करने में अपना जीवन समरस होना चाहिये। एकाग्रचित्ता से किये गये चिंतन का स्वाभाविक रूप से यह फल मिलता है कि किसी भी बुरी बात की ओर मन आकृष्ट नहीं होता। परमेश्वर के व्यक्त स्वरूप से अपने पवित्र राष्ट्र के चिंतन में, समरस हुए जीवन में, कुविचार, अनीति, पाप आदि का प्रवेश हो ही नहीं सकता। समग्र समाज के अभ्युदय के लिये कार्य करना हो तो अपना जीवन पवित्र होना ही चाहिये।
7. अपने चारों और चलनेवाले कार्यों का आकर्षण होना अस्वाभाविक नहीं है। जुलूस, सम्मेलन, सभा आदि की हलचल जहाँ रहती है, वहाँ मन में कुछ गुदगुदी उठ सकती है। उस कार्यपध्दति में मान-सम्मान प्राप्त होने के कारण अपने में से कुछ लोगों के मन में उसके प्रति आकर्षण उत्पन्न होकर, स्वयं भी उस अखाड़े में उतरकर दंगल में भाग लेने की इच्छा हो सकती है। मन में इस प्रकार की इच्छा उत्पन्न होते ही, इस प्रकार के कार्य से राष्ट्र का हित होगा, इस बात के समर्थन में बुध्दि अनेक तर्क प्रस्तुत करती है। क्योंकि उलटे-सीधे दोनों ही पक्षों के समर्थन में तर्क करने में बुध्दि सदैव सक्षम रहती है।
8. व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन में मातृभूमि की भक्ति जगाकर और उस सूत्र में संपूर्ण समाज को आबध्द कर, समाज का संगठित सामर्थ्य निर्माण करने का मूलभूत कार्य डॉक्टर साहब ने हमारे सामने रखा है। इसी कार्यार्थ हमें अपनी संपूर्ण शक्ति लगानी चाहिये। शाखाओं के द्वारा समाज में एकात्म जीवन निर्माण करने की पध्दति का पूर्णत: अवलंबन कर, इस कार्य की सिध्दि के लिये हम अपना संपूर्ण सामर्थ्य दाँव पर लगा देंगें, ऐसा दृढ़ निश्चय हृदय में धारण करना चाहिये।
9. यदि अधिकाधिक अंतर्मुख होने का प्रयत्न करेंगे, तो हमें अपने जीवनकार्य और् कर्तव्य का साक्षात्कार होगा और तबर कर्तव्य की पुकार सुनाई देगी। हम श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं और समाजसेवकों के प्रति केवल अभिमान धारण न करें, उनके अनुसार कर्म करने का प्रयास भी करें। लेकिन अंतर्मुख होना सरल बात नहीं है। उसके लिये शरीर, मन व बुध्दि की पूर्ण अंतर्बाहय शुचिता आवश्यक है। विचार, वाणी और कर्म में ही नहीं तो स्वप्न में भी पूर्ण पवित्रता हो। इसके अतिरिक्त कुछ भी न हो। इसका अभ्यास करना पड़ेग़ा।
10. सर्वप्रथम हमें अपना जीवन पवित्र बनाना होगा। खोखले शब्दों से हम दुनिया के लोगों को शिक्षा नहीं दे सकते। उक्ति के अनुरूप आचरण न हो तो शब्द निरर्थक हैं। यदि हम पवित्रता की बात कहना चाहते हों, तो हम उन वर्तमान सार्वजनिक नेताओं की नकल न करें, जो बार-बार पवित्रता पर भाषण तो देते हैं, परंतु यह जानने को कि वे स्वयं क्या हैं, निरीक्षण करने की इच्छा नहीं रखते। हम जो कहना चाहते हैं, उसके अनुसार हमारा आचरण होना चाहिये। भगवान् की कृपा से हमें एक श्रेष्ठ संस्कृति, एक जीवनोद्देश्य परंपरा से प्राप्त हुआ है। अत: उसके अनुसार हमारी कृति होनी चाहिये।
11. अपना धर्म, जिसमें अभ्युदय और नि:श्रेयस् दोनों निहित हैं, हमारी ऑंखों के सामने दिशा-दिग्दर्शन करनेवाले ध्रुव तारे के समान सदैव रहे तथा उसके अधिष्ठान पर राष्ट्र का पुनरुज्जीवन किया जाए। इसलिये व्यावहारिक दैनिक जीवन में उनके उपदेशों का अनुसरण करें, अपने को व्यक्तिश: और सामाजिक दृष्टि से बलशाली बनायें, अपने सामूहिक जीवन में पावित्र्य लाएं, अपने हृदय में यह भाव जागृत करें कि हमें इस विश्व में एक जीवनोद्देश्य पूर्ण करना है। पूर्ण विश्वास रखें कि हम अमर जाति हैं। यदि हम एकात्मता की भावना से धर्म, जीवन की विशुध्दता और अंतिम सत्य की अनुभूति के आधार पर समाज को शक्तिशाली, निर्भय और संगठित करते हैं, तो पुनश्च विश्वगुरु का पद प्राप्त कर सकते हैं ।
12. जब अपने स्वयंसेवक को इधर-उधर का आकर्षण हो जाता है, तब वह अपने संघ के नित्य कार्य से कभी-कभी कुछ विरक्त हो जाता है। सामान्यत: मनुष्य जगत् के आकर्षणों से विचलित होता ही है। यदि किसी को राजनीति के क्षेत्र में जाने का अवसर मिल गया, तो वह सोचने लगता है कि वह भगवान् के समकक्ष हो गया है। अब उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहा। भगवान् ने गीता में कहा है - 'मेरे लिये कोई कर्तव्य नहीं। कर्म के लिये मेरे मन में कोई स्पृहा भी नहीं।' इसी प्रकार राजनीति के क्षेत्र में गया हुआ व्यक्ति भी अपने को भगवान् मान कर कहता है कि मेरे लिये अब कोई कर्म नहीं। संघ में अपने लिये कुछ करणीय नहीं है, राजनीतिक क्षेत्र में भाषणबाजी करना ही मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रकार्य है, बाकी सब नगण्य व क्षुद्र हैं। राजनीतिज्ञों में ऐसा अभिमान उत्पन्न हो जाता है।
13. यदि अपने मन में यह दृढ़ धारणा हो कि यह राष्ट्र अपना है और यहाँ अपना राष्ट्र-जीवन है, यह राष्ट्र-जीवन श्रेष्ठ और उन्नत बने, इसका दायित्व अपने ऊपर ही है, तो यह समझना कठिन नहीं होगा कि वह दायित्व पूर्ण करने के लिये केवल वर्तमान बातों की ओर ध्यान न देते हुए चिरंतन रूप से प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय में राष्ट्र-भक्ति की भावना जागृत करने हेतु एक सुव्यवस्थित तथा, राष्ट्रीय भावना से प्रभावित ऐसा कार्य खड़ा करना पडेग़ा।
14. यदि हमारे मन में विकार नहीं है, हमारी श्रध्दा का केन्द्र नहीं हिला है, तो हमारे मन में झंझावातों में उड़ने की प्रवृत्ति पैदा नहीं हो सकती। राष्ट्र का चैतन्य किसी न किसी रूप में प्रकट होगा ही। बीज बो दिया है, वट वृक्ष अवश्य ही खड़ा होगा। सम्पूर्ण भारत इसके नीचे आएगा। स्थान-स्थान पर नई जड़ जमेगी। इस निश्चय पर अडिग होकर चलेंगे तो संकट नहीं आ सकता। संकट तो अधूरी शक्ति पर आता है, पूर्ण पर नहीं। एकात्मता के आधार पर पूर्ण नीतिमत्ता से समाज को प्रबल एकसूत्रता में संगठित किया तो उस पर कोई संकट नहीं आएगा, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र-जीवन उसकी प्रेरणा से चलेगा। सत्ताधीश कौन है, इसका सवाल नहीं। हम बढ़े हैं या नहीं, यह देखें।
15. जनसाधारण को शिक्षित करना तथा उनके द्वारा चुने गये योग्य व्यक्तियों को राष्ट्रहितकारी कार्यो में संलग्न बनाये रखने का अपना कार्य तभी संभव है और हम तब ही उसके पात्र बन सकते हैं, जब हमारा समाज के साथ आत्मीयतापूर्ण निकट का सम्बन्ध हो। विभिन्न छोटे बड़े क्षेत्रों में चलनेवाली अपनी संघ शाखाएँ ऐसी होनीं चाहिये जिनसे उन क्षेत्रों के सब लोगों का सम्बन्ध स्थापित होता हो। उस क्षेत्र में यदि स्फोटक परिस्थिति का खतरा हो तो सब लोगों के सामंजस्य से उसका निराकरण करने लायक हमारे सम्बन्ध समाज के साथ चाहिए। प्रारंभ से ही शाखा सम्बन्धी हमारी कल्पना यही है। शाखाओं में ऐसे कार्यकर्ता तैयार होने चाहिये, जो अपनें चारों ओर के समाज में व्याप्त अवस्था को समझते हों।
16. यह कहने से काम नहीं चलेगा कि मेरे पास समय नहीं है। यदि हम इसकी आवश्यकता को समझकर ठीक प्रकार से प्रयत्न करेंगे, तो पर्याप्त समय निकल सकेगा। अपने चारों ओर इतना विशाल समाज फैला पड़ा है, जिसके बीच हमें प्रयत्न करना है। यदि हम कहें कि हमारे पास समय नहीं, तो यह हमारे लिये शोभा देने वाली बात नहीं। हममें से प्रत्येक, अपने दैनिक जीवन के विभिन्न व्यवहार करते समय समाज के साथ सम्पर्क स्थापित करता ही है। हमें इन सब व्यवहारों के बीच अपने कार्य का ध्यान बनाये रखना होगा। प्रत्येक व्यक्ति की जो कुछ गुण-संपदा है, उसका भली प्रकार आकलन कर समाजहित में उसे प्रयुक्त करने की उसे प्रेरणा देनी चाहिए। व्यक्तियों के प्रत्येक व्यवहार में से कुछ न कुछ राष्ट्रहित का विचार निकालते बनना चाहिए। यहाँ तक कि जिन्हें अवगुणी कहा जाता है उनका भी राष्ट्रहित में प्रयोग करने की कला मालूम होनी चाहिए।
17. जीवन में कभी कुछ माँगना नहीं। देशभक्ति का व्यापार क्या करना? समष्टिरूप परमात्मा को राष्ट्र के रूप में सेवा के लिये सामने व्यक्त देखकर, अपनी सम्पूर्ण शक्ति और बुध्दि उसके चरणों में अर्पण कर उसकी कृपा के ऊपर अपना जीवन चलाना है।