पृष्ठभूमि
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जनक स्व. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने निरन्तर १५ वर्षों तक अविराम परिश्रम करके संघ को अखिल भारतीय स्वरुप दिया। १९४० के संघ शिक्षा वर्ग में भाग लेने हेतु आये कार्यकर्ताओं के समक्ष अपना अंतिम भाषण देते हुए डॉक्टर जी के उद्-गार थे कि मैं यहां हिन्दू राष्ट्र का लघु रुप देख रहा हूं। बाद में २१ जून १९४० को डाक्टर जी ने श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी के कंधों पर संघ का सारा दायित्व सौंपकर इहलोक की अपनी यात्रा समाप्त कर सबसे बिदा ली।
 
डाक्टर जी के बाद श्री गुरुजी संघ के द्वितिय सरसंघचालक बने और उन्होंने यह दायित्व १९७३ की ५ जून तक अर्थात लगभग ३३ वर्षों तक संभाला। ये ३३ वर्ष संघ और राष्ट्र के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण रहे। १९४२ का भारत छोडो आंदोलन, १९४७ में देश का विभाजन तथा खण्डित भारत को मिली राजनीतिक स्वाधीनता, विभाजन के पूर्व और विभाजन के बाद हुआ भीषण रक्तपात, हिन्दू विस्थापितों का विशाल संख्या में हिन्दुस्थान आगमन, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण, १९४८ की ३० जनवरी को गांधीजी की हत्या, उसके बाद संघ-विरोधी विष-वमन, हिंसाचार की आंधी और संघ पर प्रतिबन्ध का लगाया जाना, भारत के संविधान का निर्माण और भारत के प्रशासन का स्वरूप व नितियों का निर्धारण, भाषावार प्रांत रचना, १९६२ में भारत पर चीन का आक्रमण, पंडित नेहरू का निधन, १९६५ में भारत-पाक युद्ध, १९७१ में भारत व पाकिस्तान के बिच दूसरा युद्ध और बंगलादेश का जन्म, हिंदुओं के अहिंदूकरण की गतिविधियाँ और राष्ट्रीय जीवन में वैचारिक मंथन आदि अनेकविध घटनाओं से व्याप्त यह कालखण्ड रहा। इस कालखण्ड में परम पूजनीय श्री गुरुजी ने संघ का पोषण और संवर्धन किया। भारत भर अखंड भ्रमण कर सर्वत्र कार्य को गतिमान किया और स्थान-स्थान पर व्यक्ति- व्यक्ति को जोड़कर सम्पूर्ण भारत में संघकार्य का जाल बिछाया। डाक्टर जी ने सूत्ररुप में संघ की विचार-प्रणाली बतायी थी। उसके समग्र स्वरुप को अत्यंत प्रभावी ढंग से श्री गुरुजी ने उद् घाटित किया। विपुल पठन-अध्ययन, गहन चिंतन, आध्यात्मिक साधना व गुरुकृपा, मातृभूमि के प्रति निस्वार्थ समर्पणशीलता, समाज के प्रति असीम आत्मीयता, व्यक्तियों को जोडने की अनुपम कुशलता आदि गुणों के कारण उन्होंने सर्वत्र संगठन को तो मजबूत बनाया ही, साथ ही हर क्षेत्र में देश का परिरक्व वैचारिक मार्गदर्शन भी किया। भारत का राष्ट्र-स्वरुप, उसका सुनिश्चित जीवन-कार्य और आधुनिक काल में उसके पुनरुत्थान की वास्तविक दिशा के सम्बन्ध में उनके ठोस व तथ्यपरक विचार तो इस देश के लिए महान विचार-धन ही सिद्ध हुए हैं। इस प्रकार उनका जीवन अलौकिक एवं ऋषितुल्य था। अध्यात्मिक दृष्टी के महान् योगी किन्तु समष्टिरुप भगवान की पावन अर्चना के लिए जनसामान्य के बीच रहकर उनके हितों की चिंता करनेवाला यह महापुरुष एकांत-प्रिय तथा मुक्त होने पर भी अपने दायित्व और कर्तव्य-बोध से राष्ट्र और समाज-जीवन में अत्यंत सक्रियता का परिचय देनेवाला विलक्षण प्रतिभा का धनी था। राष्ट्र- जीवन के अंगोपांग की आदर्शवादी स्थिति की टोह लेनेवाला वह व्यक्तित्व था। संघ के विशुद्ध और प्रेरक विचारों से राष्ट्रजीवन के अंगोपांगों को अभिभूत किये बिना सशक्त, आत्मविश्वास से परिपूर्ण और सुनिश्चित जीवन कार्य पूरा करने के लिए सक्षम भारत का खड़ा होना असंभव है, इस जिद और लगन से उन्होंने अनेक कार्यक्षेत्रों को प्रेरित किया। विश्व हिंदू परिषद्, विवेकानंद शिला स्मारक, अखिल भारतीय विद्दार्थी परिषद्, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, शिशु मंदिरों आदि विविध सेवा संस्थाओं के पीछे श्री गुरुजी की ही प्रेरणा रही है। राजनीतिक क्षेत्र में भी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को उन्होंने पं. दिनदयाल उपाध्याय जैसा अनमोल हीरा सौंपा। तात्कालिक संकटों के निवारणार्थ समय-समय पर भिन्न-भिन्न समितियों का गठन कर उन्हें कार्य-प्रवृत्त किया। स्वयं को किसी भी आसक्ति अथवा ईषणा का कभी कोई स्पर्श तक नहीं होने दिया। इसीलिए श्री गुरुजी के वैचारिक मार्गदर्शन की राष्ट्रजीवन पर एक व्यापक एवं अमिट छाप पड़ी है। राष्ट्रीय विचार, जीवन दृष्टी और जीवन निष्ठा का कल्याणकारी वरदान जिन लोगों ने श्री गुरुजी के कार्यकाल में ग्रहण किया ऐसे सहस्त्रावधि लोग आज देश भर में कार्यरत हैं। अराष्ट्रीय और दोषपूर्ण विचार प्रणाली से पूर्वकाल में प्रभावित लोग अपने भ्रमों का निवारण होने के कारण संघ की विचारधारा से जुड़ते जा रहे हैं। उच्चतम शासकीय स्तर से संघ के विरुद्ध लगाये गये आरोप भी मिथ्या और निराधार साबित हुए हैं। वैसे ही स्वार्थी सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों द्वारा संघ को बदनाम करने हेतु किया जानेवाला अपप्रचार भी निष्प्रभावी होकर शिथिल पड़ता गया है। यही नहीं अपप्रचार करनेवाले लोग ही जनता की निगाह से उतरते गये और अपनी विश्वासार्हता खो बैठे।
 
किन्तु श्री गुरुजी विरोधों की जरा भी परवाह न करते हुए निर्भयता से अपने अति प्राचीन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार जनता के बीच प्रस्तुत करते रहे। श्री गुरुजी ने केवल कहा ही नहीं बल्कि विशुद्ध राष्ट्रनिष्ठा रखने वाले सहस्त्रों व्यक्ति खड़े किये, यही उनकी विशेषता थी। अपप्रचार के कारण श्री गुरुजी अनेक बार विवाद का विषय बने। उनके द्वारा प्रतिपादित अनेक मतों को विकृत रूप में प्रचारित कर राजनीतिक लाभ उठाने का भी विरोंधियों द्वारा प्रयास किया गया। किंतु घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनः चन्दनं चारु गंधम् के न्याय से श्री गुरुजी कभी विचलित या प्रक्षुब्ध नहीं हुए। उन्होंने अपना स्तर बनाये रखा। उनके निर्मल मन में कभी द्वेषभावना प्रवेश नहीं कर सकी। उन्होंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। हिन्दू जीवन-विचार और उस विचार के मूर्त प्रतीक स्वरूप हिन्दुराष्ट्र के पुनरुत्थान के उद्देश्य से वे कभी डिगे नहीं। व्यवहार में अत्यंत स्नेहशील श्री गुरुजी सिद्धान्तों के मामलों में अत्यन्त आग्रही थे। आत्मविस्मृति अथवा आत्म-वंचना की ओर ले जोनेवाला अथवा राष्ट्र की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने वाला कोई समझौता उन्हें स्वीकार नहीं हुआ।
 
ऐसे व्यक्तित्व के प्रति लोगों में जिज्ञासा पैदा हो, यह स्वाभाविक ही है। श्री गुरुजी को कर्करोग से जर्जर अपना शरीर त्यागे लगभग २४ वर्ष हो रहे है, फिर भी संघ स्वयंसेवकों के अंतःकरण में श्री गुरुजी की अनेक प्रेरक स्मृतियाँ आज भी ताजा हैं। इतना ही नहीं, तो पूजनीय श्री गुरुजी द्वारा समय-समय पर एक द्रष्टा के रूप में जो विचार व्यक्त किये गये उनका भी उत्कटता ले स्मरण कराने वाली परिस्थिति आज देश में निर्माण हो रही है। प्रत्येक देश का समाज और उसकी गुणवत्ता ही राष्ट्रीय गौरव का आधार माने जाते है। केवल शासन सत्ता में परिवर्तन से यह गुणवत्ता निर्माण नहीं होती। सातत्य से चारित्र्य निर्माण करनेवाले गुणों का संस्कार करानेवाली व्यवस्था का होना अत्यावश्यक है, यह विचार श्री गुरुजी आग्रहपूर्वक रखते थे। इसकी अनुभूति हमें आपातकाल के बाद के कालखंड में हुई। सभी कार्यों और परिवर्तन का केन्द्रबिन्दु व्यक्ति ही है। व्यक्ति यदि अच्छा नहीं रहा तो अच्छी योजना व व्यवस्था भी वह बर्बाद कर डालता है। भारत के संविधान के विषय में जो विवाद उठ खड़ा हुआ है, उस संदर्भ में श्री गुरुजी द्वारा मानवी गुणवत्ता पर बल दिये जाने का विचार ही अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है। डाक्टर हेडगेवार और श्री गुरुजी, इन दो कर्तृत्ववान तथा ध्येयसमर्पित महापुरुषों के उत्तराधिकारी के रूप में सरसंघचालक पूजनीय बालासाहेब देवरस ने भी संघ को सम्पूर्ण समाज के साथ समरस बनाने की दिशा में सेवाकार्यों पर अधिक बल देकर उल्लेखनीय कार्य किया है। संघ के विरोधियों ने इन तीनों में वैचारिक भिन्नता का आभास निर्माण कर भ्रम फैलाने का प्रयास किया किंतु स्वयं बालासाहेब ने इस भ्रामक प्रचार का अनेक प्रसंगों पर स्पष्ट शब्दों में निराकरण किया। वे कहा करते कि श्री गुरुजी का चयन डाक्टर जी ने स्वयं किया था और उसी तरह श्री गुरुजी ने मेरा चयन किया है, बस यही एक तथ्य हमारे बीच वैचारिक भिन्नता का भ्रम फैलानेवालों को पूर्ण और सशक्त उत्तर है।
 
श्री गुरुजी का समग्र चरित्र लिखना हो तो वह एक बहुत बडा ग्रंथ हो जायेगा। उनके विचारों का संकलन ही करना हो अथवा उनके चुने हुए पत्रों को ही प्रकाशित करना हो तो सैकड़ों पृष्ठ भी कम पड़ेंगे। वैसे देखा जाए तो श्री गुरुजी के संघजीवन में उनका निजी अथवा वैयक्तिक कुछ था ही नहीं। जिस तरह डाक्टर जी ने व्यक्तिगत घर-गृहस्थी बसाने का कोई विचार नहीं किया, उसी प्रकार श्री गुरुजी ने भी अपनी व्यक्तिगत गृहस्थी नहीं बसायी। संघ को, पर्याय से राष्ट्र को अपना परिवार माना। उनके ईश्वर-निष्ठ जीवन में विराट् समाजपुरुष उनका आराध्य देव बना और जीवन भर वे उसी की निष्काम सेवा भक्तिभाव से करते रहे। गीता के कर्मयोग को अपने जीवन में उतारा। संघविचार और अपनी मातृभूमि को गौररव प्राप्त कराने के लिए प्रभावी प्रयत्नों की पराकाष्ठा ही उनके ६७ वर्षीय जीवन का अभिन्न अंग रहा। जिस देह से यह सेवा नहीं हो सकती उस देह के प्रति मोह उनके मन को कभी स्पर्श नहीं कर पाया। कर्क रोग अपना काम करेगा, किंतु मुझे अपना अंगीकृत कार्य करते रहना चाहिये। ऐसा वे हँसकर कहा करते थे। श्री गुरुजी का जीवन विरागी किन्तु कर्तव्यप्रवण था। ऐसे राष्ट्रसमर्पित महान् कर्मयोगी जीवन के बारे में जिज्ञासुओं का समाधान करने तथा राष्ट्र की नयी पीढ़ी को व्यक्तिगत तथा समाज जीवन के हर क्षेत्र में चिरंतन प्रेरणा स्त्रोत के रूप में विद्दमान एक महान् आदर्श जीवन का परिचय कराने के उद्देश्य से ही यह एक प्रयास है।