शिक्षा और संस्कार
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
कई लोग ऐसे होते है जिन्हें धनी और किर्तिमान परिवार में जन्म लेने के कारण जन्मतः महानता का परिवेश प्राप्त होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पिछले तीनों सरसंघचालकों के घरानों को इस प्रकार की महानता की पृष्ठभूमि प्राप्त नहीं थी। श्री गुरुजी का जन्म अत्यंत सामान्य स्थितिवाले परिवार में हुआ। श्री गुरुजी मूलतया कोंकण के गोलवली नामक गाँव के पाध्ये घराने के थे। पाध्ये अर्थात् पुरोहित व्यवसाय से सम्बद्ध। यह घराना कोंकण से प्रथम पैठण आया और बाद में नागपुर स्थानांतरित हुआ। पूजनीय श्री गुरुजी के पितामह श्री बालकृष्ण पंत नागपुर आये। इस स्थानांतरण से उनका पुरोहिती-व्यवसाय से सम्बन्ध टुट गया इसलिये गोलवलकर पाध्ये से केवल गोलवलकर उपनाम ही शेष रहा। श्री गुरुजी के पिता श्री सदाशिवराव को बचपन से ही पितृ-वियोग का आघात सहन करना पडा। अतः शिक्षा अधूरी छोडकर आजीविका चलाने के लिए उन्हें बाध्य होना जड़ा। अनेक वर्षों तक दरिद्रता में गृहस्थी चलाने की यातना का उन्हें सामना करना पड़ा। नागपुर के कामठी में ही श्री गुरुजी के पिता श्री सदाशिवराव को डाक-तार विभाग में नौकरी मिली। श्री गुरुजी की माताजी नागपुर के ही रायकर घराने की थीं, नाम था लक्ष्मीबाई। व्यवहार में श्री सदाशिवराव भाऊजी और श्रीमती लक्ष्मीबाई ताई नाम से सम्बोधित किये जाते थे। ताई- भाऊजी दम्पत्ती को कुल चार पुत्र-रत्न प्राप्त हुए। किन्तु प्रथम दो पुत्र एक-एक वर्ष की आयु में ही काल के ग्रास बने। जब तीसरा पुत्र हुआ तो उसका नाम अमृत रखा गया। किंतु अमृत भी आयु के पन्द्रहवें साल में सन्निपात का शिकार होकर काल का ग्रास बना।
 
माता की गोद में
श्री गुरुजी अपने माता-पिता की चौथी संतान के रूप में जन्मे। उनका जन्म माघ कृष्ण एकादशी (विजया एकादशी) (दक्षिण में अमान्त मास होते है) विक्रम संवत् १९६२ तथा आंग्ल तिथि १९ फरवरी १९०६ को तड़के साढ़े चार बजे नागपुर के ही श्री रायकर के घर में हुआ। उनका नाम माधव रखा गया। परनेतु परिवार के सारे लोग उन्हें मधु नाम से ही सम्बोधित करते थे। बचपन में उनका यही नाम प्रचलित था। ताई-भाऊजी की कुल ९ संतानें हुई थीं। उनमें से केवल मधु ही बचा रहा और अपने माता-पिता की आशा का केन्द्र बना। मधु जब केवल २ वर्ष का था तभी उनके पिता श्री सदाशिवराव ने डाक-तार विभाग की नौकरी छोड़कर शिक्षक का पेशा अपनाया। अध्यापक की यह नौकरी उन्हें छत्तीसगढ़ में सरायपाली नामक देहात में मिली। सरायपाली ग्राम रायपुर से ९० मील और रायगढ़ से ६० मील की दूरी पर है। उन दिनों यातायात का कोई साधन न होने से ऐसे स्थानों पर जाने के लिये या तो पैदल चलकर या फिर घोड़े पर जाना होता था। आज की परिभाषा में हम जिसे अत्यंत पिछड़ा और आधुनिकता से कटा क्षेत्र कहते हैं, ऐसे क्षेत्र में मधु को बचपन बिताना पड़ा। किंतु यदि किसी का जीवन उत्तम बनाना हो तो प्रतिकुलता पर मात करनेवाली कुछ अनुकूलता भी ईश्वर उसे प्रदान करता है। हाँ, उसे धारण करने की क्षमता उस व्यक्ति में होनी चाहिए। यह क्षमता श्री गुरुजी में बचपन से ही थी। और इसीलिए माता-पिता द्वारा किये गये सुसंस्कारों को वे शीघ्रता से ग्रहण करते गये। भाऊजी जहाँ स्वाभिमानी, ज्ञानदान में आस्था रखनेवाले एक सच्चरित्र शिक्षक थे, वहीं ताईजी एक अत्यंत धर्मपरायण सुगृहिणी और आदर्श माता थी। मधु जब २ वर्ष का था तभी से उसकी शिक्षा प्रारंभ हो गई। भाउजी पढ़ाते और मधु उसे आसानी से कंठस्थ कराता जाता। ताईजी की शालेय शिक्षा नहीं हो पाई थी किंतु संस्कारक्षम कथाओं का विपुल भंडार उनके पास था। उस सारे ज्ञान- भंडार का लाभ उत्कृष्ट स्मरणशक्तिवाले मधु ने उठाया। बचपन में किस प्रकार के सुसंस्कार उन्हें प्राप्त हुए इसका उल्लेख आगे चलकर सरसंघचालक के नाते पुणें में दिये अपने एक भाषण में उन्होंने किया था। उस भाषण में उन्होंने कहा था – “बचपन का स्मरण होते ही मेरा मन अनेक मधुर स्मृतियों से भर उठता है। वे सारी घटनाएँ मनः चक्षुओं के सामने एक-एक करके उभरने लगती हैं। सुबह तड़के मुझे नींद से जगाया जाता। उसी समय मेरी माँ एक ओर अपने हाथों से घर का कामकाज करती थीं और अपने मुँह से कोई न कोई स्तोत्र गान करती हुई ईश्वर का नामस्मरण भी करती थीं। ताई के मधुर मंगल स्वर मेरे कानों में गूँजते। प्रभात के शांत और प्रसन्न क्षणों में मधुर स्वरों के कानों में गूँजने से मेरे बाल मन पर कितनी गहरी और पवित्र छाप पड़ी होगी ? ”
 
जन्मजात प्रतिभा
माधव के बाल्यकाल की अनेकविध घटनाएँ इस बात का विश्वास दिलाती हैं कि माधव में कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति, अन्यों के दुःख दर्दों के निवारणार्थ जूझने की वृत्ति, सहनशिलता की पराकाष्ठा, निरहंकारिता और मन की निर्मलता जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विकसित हो रहा था। प्रत्येक गुण का आकर्षण व सीखने की तीव्र अभिरुचि भी माधव में दिखलाई पड़ती थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पद का दायित्व श्री गुरुजी पर आया तब लोगों को उनकी अमुल्य गुण-सम्पदा की पहचान विशेष रूप से हुई। किंतु इन सारे गुणों का विकास और संवर्धन उनके छात्र-जीवन में ही हुआ था, यह बात उनके जीवन चरित्र से स्पष्ट होती है। उदारणार्थ पठन-पाठन, अद्-भुत स्मरण शक्ति और कंठस्थ करने की कला, हिंदी व अंग्रेजी भाषाओं पर समान प्रभुत्व जैसे गुणों का बिजारोपण उनके बाल्यकाल में ही हो चुका था। प्राथमिक शिक्षाकाल में ही उनके पठन-पाठन का दायरा काफी विस्तार पाने लगा था। विविध प्रकार की पुस्तकों को पढ़ने के प्रति उनका काफी लगाव था। जब वे माध्यमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तभी उनका आंग्ल नाटककार शेक्सपीयर के सारे नाटकों का पठन हो चुका था। अपने सहपाठियों को वे इन नाटकों की कथाएँ अत्यंत रोचक ढ़ंग से सुनाया करते थे। कक्षा में जब शिक्षक पाठ्य पुस्तक पढ़ा रहे होते तब गुरुजी कोई दूसरी ही पुस्तक पढ़ रहे होते किंतु कक्षा में क्या चल रहा है इसकी ओर भी उनका ध्यान रहता। कक्षा में माधव के हाथों में अन्य पुस्तक देखकर शिक्षक ने सोचा कि उसका ध्यान पढ़ाई की ओर नहीं है। अतः एक दिन कक्षा में माधव को सबक सिखाने के इरादे से शिक्षक ने पाठ्य पुस्तक का पाठ पढ़ रहे छात्र को बीच में रोक कर आगे का हिस्सा पढ़ने का आदेश माधव को दिया। माधव ने बिना हिचक पाठ्य पुस्तक हाथ में ले ली और अपने वर्गबंधु ने जहाँ से पढ़ना बन्द किया था ठीक उस वाक्य से अगला हिस्सा पढ़ना शुरू कर दिया। यह देखकर कक्षा के छात्र और शिक्षक चकित रह गये। माधव को सबक सिखाने का शिक्षक का दांव विफल हो चुका था।
 
प्राथमिक शाला मे ही भाऊजी अपने माधव को अंग्रेजी भी सिखाने लगे थे। माधव ने इस विषय में भी इतनी शीघ्रता से प्रगति की कि जब प्राथमिक की चौथी कक्षा में थे तभी वे अपने नागपुर स्थित मामा को अंग्रेजी में पत्र लिखा करते थे। पिताजी की नौकरी हिंदीभाषी प्रदेश में थी और बार-बार स्थानांतरण के कारण रायपुर, दुर्ग, खंडवा आदि अनेक स्थानों का पानी माधव को पीने को मिला। इस अवधि में वे हिंदी भाषा से अच्छी तरह परिचित हो गये। मातृभाषा के नाते मराठी का ज्ञान तो उन्हें था ही। अनेक स्थानों पर वास्तव्य का एक परिणाम यह भी हुआ कि भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी लोगों के सम्पर्क में वे आये। मन में संकुचितता नहीं रही और यह मानसिकता बनी कि सभी भारतीय भाषाएँ अपनी ही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक के नाते श्री गुरुजी को जीवन भर अनगिनत, असंख्य भाषण देने पड़े। उनका वक्तृत्व अत्यंत ओजस्वी और स्फूर्तिदायक रहा करता था। इस वक्तृत्व-गुण का विकास भी शालेय जीवन से ही हुआ था। विषय की पूर्ण तैयारी कर वक्तृत्व-स्पर्धा में प्रथम क्रमांक का पुरस्कार पाने का पराक्रम भी उन्हों ने बचपन में कर दिखाया था। खूब खेलना, खूब पढ़ना, मित्रों को यथासंभव मदद करना, नम्रता बरतना, अपने जिम्मे आनेवाले घरेलू काम खुशी से करना, अन्य लोगों के सुख-दुखों से समरस होना, इस प्रकार शालेय जीवन का काल उन्होंने सार्थक कर दिखाया। भावी कर्तृत्वसम्पन्न जीवन की नींव इसी कालखंड में रखी गई।
 
श्री गुरुजी के पिताजी ने एक बार कहा था कि माधव एक बड़ा कर्तृत्वशाली व्यक्ति बनेगा, यह तो उसके शालेय जीवन में प्रप्त उसकी गुणवत्ता से ही अनुभव होता था। किन्तु वह इतना महान् बनेगा, यह कल्पना हमने नहीं की थी। संतानों में अकेला माधव ही बचा इसका भी अब मुझे कोई दुःख नहीं रहा, क्योंकि संघ स्वयंसेवकों के रूप में हजारों बच्चे ही मानों हमें पुत्र-रूप में प्राप्त हुए हैं। यह कहते समय श्री भाऊजी के चेहरे पर अपने अलौकिक पुत्र के बारे में अभिमान प्रकट होता और नेत्र धन्यता के आँसुओं से भर आते। किन्तु यह भी ध्यान में रखना होगा कि निस्पृहता, कर्तव्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, परिश्रमशीलता और ज्ञान की उपासना आदि सारे गुण जो गुरुजी में प्रकट हुए वे उनके आदर्श माता-पिता के द्वारा उन पर किये गये सुसंस्कारों के कारण ही संभव हुए थे। इसका कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख श्री गुरुजी ने अनेक बार किया है। श्री भाऊजी की लगन और दृढ़निश्चयी वृत्ति की कल्पना एक घटना से आ सकती है। अध्यापन का व्यवसाय अपनाते समय भाऊजी ने केवल मैट्रिक की परीक्षा ही उत्तीर्ण की थी। बीच में काफी कालखंड बीत चुका था। किंतु उन्होंने स्नातक बनने की ठानी। मैट्रिक होने ते बीस साल बाद इंटरमीडिएट की परीक्षा में वे उत्तीर्ण हुए और स्नातक की उपाधि ग्रहण करने के लिए उन्हें और सात वर्ष लगे। शिक्षक की नौकरी तो उन्होंने पूर्ण जिम्मेदारी के साथ निभायी किंतु बाकी बचे समय में वे ज्ञान-दान का कार्य अविरत करते रहे। माताजी ताईजी तो निश्चय की इतनी पक्की थीं कि १९३४ में उन्होंने श्री बाबाजी महाराज नामक एक सत्पुरुष के साथ प्रयाग से आलंदी तक लगभग १ हजार मील की पदयात्रा की और त्रिवेणी संगम के पवित्र गंगाजल से संत ज्ञानेश्वर की समाधि का अभिषेक कराया। इस प्रवास में एक दुर्घटना में उनकी सारी पीठ जल जाने से दाह वेदना होती रही परन्तु उसे सहन करते हुए भी वे चलती रहीं।
 
एक मार्मिक प्रसंग
पिताजी का जैसे-जैसे स्थानांतरण होता था वैसे-वैसे शालाएँ भी बदलती जाती थीं। माधव ने १९२२ में चांदा (अब चंद्रपुर) के जुबिली हाईस्कुल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। भाऊजी की इच्छा थी कि माधव मेडिकल कालेज में प्रवेश लेकर डाक्टर बने। इसीलिए भारी आर्थिक तनाव को सहन करते हुए उन्होंने माधवराव को पुणे स्थित फर्ग्युसन कॉलेज की विज्ञान शाखा में अध्ययन हेतु प्रवेश दिलाया। इंटर साइंस के बाद ही मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिल सकता था। किंतु इसी बीच मुम्बई सरकार ने एक आदेश निकालकर केवल मुबंई राज्य के निवासी-छात्रों के लिये ही कॉलेजों में प्रवेश सीमित करने की घोषणा की। मध्यप्रदेश और बेरार उन दिनों मुबंई राज्य का घटक नहीं था। इसीलिए तीन माह में ही माधवराव को अधूरी शिक्षा छोड़कर पुणे से नागपुर लौटना पड़ा। माधवराव को डाक्टर बनाने का भाऊजी का सपना साकार नहीं हो सका। नागपुर लौटने पर ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित हिस्लॉप कॉलेज की विज्ञान शाखा में उन्होंने प्रवेश लिया और १९२४ में इंटर की परीक्षा विशेष प्राविण्य प्राप्त कर उत्तीर्ण की। कॉलेज जीवन के इन प्रथम २ वर्षों में एक उत्कृष्ट खिलाड़ी और मेधावी छात्र के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की। इस काल की एक संस्मरणीय घटना है। प्राचार्य गार्डिनर ने पढ़ाते समय बाईबिल के एक प्रसंग का संदर्भ प्रस्तुत किया। यह कॉलेज चूँकि ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित था, अतः वहाँ बाईबिल का अध्ययन अनिवार्य था। माधवराव ने बाईबिल का बड़े ध्यानपूर्वक गहराई से अध्ययन किया था। उनकी स्मरण शक्ति भी काफी तेज़ थी। सरसंघचालक बनने के बाद भी वे अपने भाषणों तथा वार्तालाप में बाईबिल के अनेक सन्दर्भ तथा ईसा मसीह के जीवन की अनेक घटनाओं और वचनों को उद्-धृत किया करते थे। कक्षा में प्राचार्य गार्डिनर द्वारा दिया गया सन्दर्भ गलत है ऐसा प्रतीत होते ही माधवराव ने उठकर उन्हें टोका और कहा, महाशय आप गलत सन्दर्भ दे रहे हैं। वहाँ जिस सन्दर्भ की आवश्यकता थी उसे मुँहजबानी उद्-धृत कर सुनाया तो प्राचार्य महोदय हक्का-बक्का रह गये। किन्तु बाईबिल का मुझसे अधिक ज्ञान इस विद्यार्थी को है, यह बात प्राचार्य महोदय को कैसे मंजूर होती ? सो उन्होंने तुरन्त बाईबिल की पुस्तक मंगवायी और स्वयं उस सन्दर्भ की छान-बीन की। उन्हें यह जानने में देर नहीं लगी कि छात्र माधवराव ने जो कहा था वही ठीक था। पुस्तक में मूल सन्दर्भ में हू-ब-हू वही निकला जैसे माधवराव ने उद्-धृत किया था। अपनी भूल को खिलाड़ी-वृत्ति से स्वीकार कर प्राचार्य महोदय ने माधवराव की पीठ थपथपायी। इन दो वर्षों के कॉलेज जीवन में अनेक बार कक्षा से अनुपस्थित रहकर भी माधवराव अन्य पुस्तकों का पठन किया करते थे। शाला हो या कॉलेज, केवल परीक्षा उत्तीर्ण होने के लिए ही अध्ययन करने की उनकी मनोवृत्ति नहीं थी। ज्ञानार्जन की भूख मिटाने के लिए उनका पठनकार्य अहोरात्र चलता रहता था, किन्तु इसके बावजूद शालेय अथवा कॉलेज के अध्ययन की उपेक्षा भी उन्होंने कभी नहीं की। सुविख्यात अंध वंशीवादक श्री सावलाराम के साथ उनकी गाढ़ी मित्रता थी। अतः इसी कालखंड में वंशीवादन की कला भी उन्होंने हस्तगत कर ली थी।
 
इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद माधवराव जी के जीवन में एक नये और दूरगामी परिणाम वाले अध्याय का प्रारंभ हुआ। यह अध्याय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश के साथ शुरू हुआ।