भारत-नेपाल संबंध और श्रीगुरुजी
श्रीगुरुजी (हिंदी)   25-Oct-2017
दि. 26 फरवरी 1963 के शिवरात्रि के पवित्र पर्व पर श्री गुरुजी भगवान पशुपतिनाथ के दर्शन के लिए काठमाण्डू गये थे। दर्शन के पश्चात् श्री गुरुजी नेपाल के तत्कालीन महाराजाधिराज श्री महेन्द्रवीर विक्रमशाह से पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार मिलने गये। इस अवसर पर प्रधानमंत्री डा. तुलसी गिरि भी उपस्थित थे।
 
देवतात्मा हिमालय की गोद में बसा हुआ नेपाल एकमात्र हिन्दू राज्य होने के कारण तथा नेपाल नरेश के भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यों के लिए मुक्त रूप से भ्रमण करने में किसी तरह की रुकावट न होने से श्री गुरुजी चाहते थे कि विश्व हिन्दू परिषद् के कार्य में उनका सहयोग प्राप्त किया जाय तथा भारत में हिन्दू समाज संगठित करने के उद्देश्य से कार्यरत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य का उन्हें यथोचित परिचय कराया जाय। सौहार्दपूर्ण वातावरण में प्रायः घंटा भर बातचीत चलती रही। नेपाल नरेश ने अपने हृदय की बातें कहीं। नेपाल की जनता आर्थिक और शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ी हुई है। उग्रवादी वामपन्थी तोड़फोड़ की कार्यवाही कर भारत के तराई क्षेत्र में भाग कर आश्रय लेते हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक एकता के कारण भारत और नेपाल में स्वाभाविक अपनत्व का भाव है। वामपंथी हमारी धर्मश्रध्दा के कट्टर विरोधी हैं। 1962 में चीन द्वारा भारत पर हुए आक्रमण के समय भारत को पीछे हटना पड़ा। नेपाल की उत्तर सीमा चीन से लगी है। फलतः चीन के साथ बहुत ही सावधानी से व्यवहार करना पड़ता है। नेपाल ने कलकत्ता बंदरगाह से विदेशों से वस्तुएँ आयात करने की अनुमति माँगी थी, परन्तु वह नहीं मिली, इसलिए बाध्य होकर बांग्लादेश (पूर्व पाकिस्तान) चटगांव बंदरगाह से माल लाये जाने की पाकिस्तान से अनुमति माँगनी पड़ी। पाकिस्तान ने बिना झिझक के वह बात मान ली।
 
"लगता है कि पंडित नेहरू को हिन्दू राज्य की कल्पना असहनीय थी। संदेह होता है कि किसी के द्वारा नेपाल के बारे में उनके मन में भ्रान्त धारणाएँ भर दी गयी हैं। अनुभव होता है कि भारत की विदेश-नीति नेपाल के अनुकूल नहीं है। भारत का दृष्टिकोण, जो पू्र्वाग्रह के कारण दूषित-सा हो गया है, यदि परिवर्तित हुआ तो नेपाल-भारत दोनों को बहुत ही लाभदायी होगा। विश्व हिन्दू परिषद् के कार्य से विश्व के हिन्दुओं को एक सांस्कृतिक आधार मिल जाएगा। उसकी नितान्त आवश्यकता है। भारत में जाकर संघ का कार्य निकट से देखना मैं चाहूँगा आदि।"
 
विश्व हिन्दू परिषद् के कार्य में अपेक्षित सहयोग देने तथा संघ द्वारा आयोजित किसी कार्यक्रम में सम्मिलित होने में क्या अड़चनें हैं, यह नेपाल नरेश ने आत्मीयता से वर्णित किया। श्री गुरुजी ने उनकी बातें ध्यानपूर्वक सुनीं। उनका वस्तुनिष्ठ विश्लेषण सुनकर श्री गुरुजी ने जो कहा उसका आशय इस प्रकार था :
 
"ऐसा संदेह होता है कि, आपके हृदय के भाव और विचार पंडित नेहरू तक पहुँच नहीं पाते। कुछ भ्रान्त धारणाएँ भी होंगी। लगता है कि चीन के आक्रमण के कारण भारत को वामपंथियों के बारे में पुनर्विचार करना ही पड़ेगा। 1 मार्च, 1963 को भारत के गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री यहाँ पधार रहे हैं। नेपाल-भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक एकता के आधार पर आप गृहमंत्री से कृपया वार्तालाप करें। मैं समझता हूँ कि इससे भारत के साथ दृढ़ स्नेहपूर्ण संबंध निर्माण हो सकेंगे। मैं भी अपने परिचित भारत के श्रेष्ठ व्यक्तियों से इस विषय पर अवश्य वार्तालाप का प्रयास करूँगा।"
 
प्रसन्न हृदय से नेपाल नरेश तथा डा. तुलसी गिरि ने श्री गुरुजी को भाव-भीनी विदाई दी। श्री गुरुजी काशी लौट आये। यह पहले ही घोषित हो चुका था कि 1 मार्च, 1963 को श्री लालबहादुर शास्त्री नेपाल की यात्रा पर जायेंगे और वहाँ नेपाल नरेश से मिलेंगे। श्री गुरुजी ने निर्णय किया कि लालबहादुर शास्त्री के दिल्ली से नेपाल यात्रा पर प्रस्थान करने के पूर्व उन्हें अपनी नेपाल नरेश के साथ हुई वार्ता का निष्कर्ष बतलाया जाय तथा पंडित नेहरू को यह सूचित किया जाय कि अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक चाल के स्थान पर धार्मिक-सांस्कृतिक एकात्मता सूत्र के माध्यम से भारत के साथ नेपाल का निकट सम्पर्क प्रस्थापित करने में सुविधा होगी।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.